क्या हासिल हर किये-धरे का ?
गुमसी रातें
बोझिल भोर !
हर मुट्ठी जब कसी हुई है
कोई कितना करे प्रयास
आँसू चाहे उमड़-घुमड़ लें
मत छलकें पर
बनके आस
सूख निवाला
फँसा हलक में
’पानी ! पानी !’ कर दो शोर..
इच्छाओं के धुआँ-धुआँ में
किर्ची-मिर्ची होती आँख
किश्तें अब भी बची हुई हैं
रीते कैसे रोती आँख
पड़ा खेत इस कदर डराता
माँगे काया
रस्सी-डोर !
नये ढंग के शासक आये
अजब-ग़ज़ब इनका अंदाज़
रगड़-रगड़ कर, छुरी उलट कर
गरदन रेतें
बिन आवाज़
मगर सदा हम बकरे की माँ
कभी कलपते
कभी विभोर !
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--सौरभ पाण्डेय
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
वाह | नवगीत पढ़कर आनंद आया | नवगीत के बारे में बिलकुल ही अनजान हूँ | पर यह विधा भी सुंदर है | धन्यवाद आदरणीय |
शानदार नवगीत हुआ है आदरणीय सौरभ जी, दाद कुबूल करें।
इच्छाओं के धुआँ-धुआँ में
किर्ची-मिर्ची होती आँख
किश्तें अब भी बची हुई हैं
रीते कैसे रोती आँख
वाह वाह बहुत शानदार नव गीत रचा है आदरणीय सौरभ जी, वातावरण,चलन ,परिस्थितियों वश कर्म को कोई सार्थक परिणाम न मिले तो हताशा शब्दों में फूटती है चाहे वो किसी के दमन से उपजे भाव हों या किसी तंगदिल की असंवेदनशीलता से उपजे भाव हों फलस्वरूप आँखें ही रीतती हैं आज मुट्ठियाँ क्या दिल की गलियाँ भी संकुचित हो रही हैं जिसमे किसी संवेदना की हवा भी मुश्किल से पँहुचती हैं |आपके गीत से उपजे भावों को उकेरा है बस ...सराहनीय प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई
देशज मुहावरों से सजी आपकी तत्सम प्रवृत्ति से वैपरीत्य दर्शाती इस अद्भुत रचना का भी क्या निराला अंदाज है - क्या हासिल हर किये-धरे का ? गुमसी रातें बोझिल भोर ! इस सुन्दर नवगीत हेतु आपको बधायी आदरणीय .
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
आदरणीय सौरभ सर ..बहुत दिनों बाद ..आपका नवगीत पढने को मिला ..बर्तमान जीवन की हकीकत का सजीव चित्रण करती इस शानदार रचना के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें ..सादर प्रणाम और नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर
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