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जब कभी दर्द हद से गुज़रने लगा
शाइरी का हुनर तब निखरने लगा
ज़ख़्म जब भी लगा दिल से दरिया कोई
हर्फ़ बन कागज़ों पर बिखरने लगा
तन के भीतर जो उस आइने में उतर
कौन ऐसा है जो अब सँवरने लगा
बेवफ़ाई का ऐसा हुआ है असर
एक सन्नाटा दिल में पसरने लगा
रँग बदलने की आदत तेरी गिरगिटी
सो जहाँ तू नज़र से उतरने लगा
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय ब्रज जी सादर स्वागत आभार
बहुत खूब कहा आदरणीय मिश्रा जी...हार्दिक बधाई
आदरणीय लक्ष्मण सर बहुत बहुत आभार।
आदरणीय चेतन प्रकाश जी ग़ज़ल पर उपस्थिति के लिए सादर आभार।
1.इसमें ऐब-ए-तनाफुर कहाँ है?
2. मैं ग़ज़ल के उच्चारण आधारित लक्षण को ध्यान में रखता हूँ.....चूँकि मैं आदत और तेरी का सुस्पष्ट और अलग अलग उच्चारण कर पा रहा हूँ इस लिए इस मिसरे को भी मैं दोष रहित ही मानता हूँ।
इसलिए मैं अपनी किसी भी ग़ज़ल में उच्चारण की समस्या सम्बन्धी इज़ दोष को उपेक्षित कर देता हूँ।
अन्य शब्दों में कहूँ तो मैं इसे ऐब नहीं मानता।
आ. भाई पंकज जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम
आपके सुझाव समुचित हैं, सुधार अवश्य होगा।
प्रिय अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा ख़ुश रहो, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें I
'हर्फ़ बन कागज़ों पर बिखरने लगा'
चूँकि आपने ग़ज़ल में प्रयोग हुए सभी उर्दू स्ग्ब्दों में नुक़्ते लगाये हैं इसलिए बता रहा हूँ कि इस मिसरे में 'कागज़ों ' को "काग़ज़ों" कर लें I
' तन के भीतर जो उस आईने में उतर'
इस मिसरे में 'आईने' को "आइना" कर लें, वज़्न बिगड़ रहा है I
'गिरगिटी रंगबाज़ी की आदत तेरी
सो जहाँ तू नज़र से उतरने लगा'
इस शे`र के सानी मिसरे पर विचार करें I
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