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ग़ज़ल : ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ

अरकान : 2122 2122 212

ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ

तुहमतें, रुसवाइयाँ, नाकामियाँ

आए थे जब हम यहाँ तो आग थे

राख हैं अब, उठ रहा है बस धुआँ

दिल लगाने की ख़ता जिनसे हुई

उम्र भर देते रहे वो इम्तिहाँ

सोचता हूँ क्या उसे मैं नाम दूँ

जो कभी था तेरे मेरे दरमियाँ

मैं अकेला इश्क़ में रहता नहीं

साथ रहती हैं मेरे तन्हाइयाँ

कहने को तो कब से मैं आज़ाद हूँ

पाँव में अब भी हैं लेकिन बेड़ियाँ

जीते जी लेता नहीं कोई ख़बर

एक दिन ढूँढेंगे सब मेरे निशाँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Mahendra Kumar on November 10, 2022 at 6:47am

बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर सर। दिल से आभारी हूँ।

Comment by Samar kabeer on November 5, 2022 at 6:40pm

जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल कही आपने , बधाई स्वीकार करें  I 

तोहमतें ---"तुहमतें"

Comment by Mahendra Kumar on November 3, 2022 at 2:29pm

आदरणीय बृजेश जी, आभारी हूँ। बहुत शुक्रिया।

Comment by Mahendra Kumar on November 3, 2022 at 2:29pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय Zaif जी। हार्दिक आभार।

Comment by Mahendra Kumar on November 3, 2022 at 2:28pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आभारी हूँ। दिल से शुक्रिया।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 1, 2022 at 7:03pm

वाह आदरणीय महेंद्र जी वाह...क्या ख़ूब ग़ज़ल कही...बधाई

Comment by Zaif on October 30, 2022 at 2:36pm

जीते जी लेता नहीं कोई ख़बर
एक दिन ढूँढेंगे सब मेरे निशाँ

क्या कहने!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 26, 2022 at 9:42am

आ. भाई महेन्द्र जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

Comment by Mahendra Kumar on October 26, 2022 at 8:04am

आदरणीय साथियो,

रास्ता मेरा है दुनिया से अलग
क्यों चलेगा मेरे पीछे कारवाँ

यह शेर भी इसी ग़ज़ल का हिस्सा है। चूँकि यह पहले फेसबुक पर प्रकाशित हो चुका था इसलिए इसे ग़ज़ल के साथ नहीं दिया।

Comment by Mahendra Kumar on October 26, 2022 at 7:46am

आदरणीय रवि भसीन जी, दिल से आभारी हूँ। बहुत-बहुत शुक्रिया।

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