भावों के सागर को जब-जब
अमृत घट बंधन में बाँधा-
क्षणभंगुर सा स्वप्न सजीला, छन से टूटा...बिखर गया
तड़प-तड़प प्राणों ने ढूँढा, लेकिन जाने किधर गया ?
भीतर-भीतर अंतःमन में जन्मे जाने कितने सपने,
लिए रवानी एहसासों की लगे सदा जो बिल्कुल अपने,
मदहोशी में खोया-खोया अपने ही सपनों में जीता,
अपने ही मद में डूबा मन अपनी ही मदिरा को पीता,
घट फूटा तंद्रा भी टूटी,
घट की हर आकृति भी झूठी-
सुध-बुध छलता मनहर हर घट, रीता देखा... जिधर गया ।
शांत-शांत मन के सागर में हलचल रंगीले भावों की ,
शब्दों के तानों-बानों में ढली कहानी दोहरावों की,
अनगिन सपनों की प्याली में अमिय सरीखे विषमय प्याले,
चुन-चुन मनचाहे रंगों को, मनगढ़ दृश्यों में रच डाले,
दृष्ट पटल पर सचलेखे सा
मन का हर क्षणभंगुर सपना-
किसी बुलबुले सा जब फूटा, मन बेचारा... सिहर गया ।
देख-देख लहरों की हलचल इस अविरल निर्माप सृजन में,
देख-देख बूंदों का नर्तन तटबंधों के मूर्त वृजन में,
व्यर्थ लगा भावों का बंधन, मनहर सपनों में शब्दों में
व्यर्थ लगा हर संचय मन का, आकृति लेते प्रारब्धों में,
हँसते-रोते, मिलते-खोते
हर क्षणभंगुर आकर्षण में
बार-बार मन का भरमाना, जिसने समझा... निखर गया ।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ. प्राची बहन, सादर अभिवादन। उत्तम रचना हुई है । हार्दिक बधाई.
मुहतरमा डॉ. प्राची सिंह जी आदाब, बहुत उम्द: रचना हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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