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दहकता सूरज भी /अंतिम छोर नहीं है.... ब्रह्माण्ड का ....

एक आसमान को छूता
पहाड़ सा / दरक जाता है
मेरे भीतर कहीं ..
घाटियों में भारी भरकम चट्टानें
पलक झपकते
मेरे संपूर्ण अस्तित्व को
कुचल कर
गोफन से छूटे / पत्थर की तरह
गूँज जाती हैं.
संज्ञाहीन / संवेदनाहीन
मेरे कंठ को चीर कर
निकलती मेरी चीखें
मेरे खुद के कान / सुन नहीं पाते
मैं देखता हूँ
मेरे भीतर खौलता हुआ लावा
मेरे खून को / जमा देता है
जब तुम न्याय के सिंहासन पर बैठ कर
सच की गर्दन मरोड़कर
देखते देखते निगल जाते हो
और फिर / दुर्गन्ध युक्त झूठ का / वमन करते हो
न्याय को शिखंडी बना कर
वध करते हो विश्वास का
जब मेरे शब्द
तुम्हारे लिए अर्थहीन हो जाते हैं
तब उनके हिंसक होने को
कब तक रोकेगा मेरा विवेक ?
मत थमाओ
बारूद / निरपराध के हाथों
जिस धरती पर
शीश नवाने से
मंदिर के पत्थर भी
न्याय करते हों
वहाँ तुम्हारी / जड़ व विकृत
संवेदनाओं के लिए
कितनी और बलि देनी होंगी ?
जानते हो ?
दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ....

.

....ललित मोहन पन्त

"मौलिक एवं अप्रकाशित "

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 2:50pm

डॉ. ललित मोहन पंतजी, आपकी पंक्तियों पर विलम्ब से आ पा रहा हूँ इसकी ग्लानि तो है. लेकिन ग्लानि के भाव और सान्द्र हो गए जब आपकी प्रस्तुत रचना से गुजर चुका हूँ.
यह रचना आपके रचनाकर्म की गहनता को तो साझा करती ही है, आपकी वैचारिक कहन और उसके संप्रेषण के प्रति आश्वस्त भी करती है.
जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वह है इस रचना की गहन संप्रेषणीयता, रचना का सार्थक विन्यास और प्रयुक्त शब्दों का सटीक प्रयोग.

प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से आपके कवि ने आमजनों की पारिस्थिक विवशता और फिर झुंझलाहट को कितने तीव्रता से साझा किया है ! --  
जिस धरती पर
शीश नवाने से
मंदिर के पत्थर भी
न्याय करते हों
वहाँ तुम्हारी / जड़ व विकृत
संवेदनाओं के लिए
कितनी और बलि देनी होंगी ?

यदि यह सुझाव है तो सुझाव सही अन्यथा मैं तो इसे उद्विग्न चेतावनी ही कहूँगा -
जानते हो ?
दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ...

प्रस्तुत कविता ने आपकी रचनधर्मिता के सबल पक्ष को समक्ष किया है. मन मुग्ध तो है ही, संतुष्ट भी है.
मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें, आदरणीय.
शुभ-शुभ

Comment by dr lalit mohan pant on October 15, 2013 at 9:19am

उत्साहवर्धन के लिए आभार Sushil.Joshi जी। … 

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 3:35am

बहुत बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय डॉ. ललित मोहन जी.....बधाई स्वीकारें....

Comment by dr lalit mohan pant on October 14, 2013 at 2:43pm

आदरणीया  Dr.Prachi Singh  जी  एवं आदरणीय बृजेश नीरज  जी आप की विद्वत प्रतिक्रियाओं  का आभार  … मेरी बात आप तक पहुँची यह अनुभूति कविता को  सार्थक कर गई  …. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 14, 2013 at 10:45am

आदरणीय डॉ० ललित मोहन पन्त जी 

बहुत गूढ़ चिंतन विवेचन (self dialogue) के बाद अंतर की जिस पीढ़ा को सुगढ़ बिम्ब प्रयुक्त करते हुए व्यक्त किया है... मैं वाकई दंग हूँ इस प्रस्तुति पर..

और अंत में अहंकार को चेतावनी देती प्रखर आवाज ...

दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ....

बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति 

हार्दिक बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on October 13, 2013 at 6:27pm

बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by dr lalit mohan pant on October 11, 2013 at 9:30pm

आदरणीय Kewal Prasad  जी  ,धन्यवाद आपके सराहना के लिये  …. 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 11, 2013 at 8:37pm

......क्या कहने? वाह....गजब, बहुत खूबं।    इस रचना के लिए हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। आदरणीय ललित मोहन भार्इजी,  सादर,

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 11, 2013 at 5:17pm

आदरणीय पन्त जी ..भावमय इस रचना के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by vandana on October 11, 2013 at 7:21am

न्याय को शिखंडी बना कर
वध करते हो विश्वास का

गज़ब की रचना आदरणीय पन्त साहब 

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