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"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था,  उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 17, 2017 at 10:43pm

वाह वाह | आज के आधुनिक जीवन शैली पर एक करार व्यंग्य | गज़ब गज़ब और गज़ब |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 1:21am

वाह वाह.... कैक्टस और पुराना पेड़...कैक्टस की खातिर काट दिया पुराना पेड़ ....करारा व्यंग्य....ये जीवन की आपाधापी.... आगे निकल जाने की रेस.... अंतर्मन का संगीत भी अनसुना कर बस दौड़ता भागता जीवन .... एक नितांत कोरा और भावशून्य दिखावटी संसार बनाने में पल पल मर रहे है ..... मार रहे है खुद को भी..... बेकार ही इनकी खातिर मर रहे है हम ...... लालच और स्वार्थ के रिश्तों की दरारों में चिपट कर फंस चुके हम..... इस महत्वाकांक्षाओं के स्वार्थी संसार के कैक्टस को पाल रहे है ... और मार रहे है अपने भीतर के उस कुछ को जो बहुत कुछ है या कहे सब कुछ है .... मन पर बहुत गहरा प्रभाव छोडती ये लघुकथा..... आधुनिकता के अंधकूप में धसते हुए सब कुछ हाशिये पर करने को आतुर उन सभी लोगो को बड़ा झटका देती लघुकथा....चवन्नी जो रोते हजारों वो खोते........ इस बेहतरीन, वैचारिक  और अनुकरणीय लघुकथा के लिए आपको हृदय से ढेर सारी बधाई और साधुवाद . लघुकथा का मर्म सिखाती आपकी सर्जना... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 14, 2014 at 4:14pm

आदरणीय योगराजभाईजी, क्षमाप्रार्थी हूँ कि आपकी कई दफ़े पढ़ी और गहरे गुनी इस सशक्त और सहज संप्रेषष्य लघुकथा ’कैक्टस’ पर अपनी बातें अब कर पा रहा हूँ. लेकिन आप मेरी हालिया व्यस्तता या विवशता समझते हैं इसलिए मैं आपकी ओर से तनिक संतुष्ट हूँ. पोस्ट हुई रचनाओं को अपने तईं एक-एक कर पढ़ता जा रहा हूँ.

भोजपुरी भाषा में एक कहावत है - हीरा दहाइल जाय, कोयला प छापा.  इस कहावत के मर्म को पूरी तरह से शाब्दिक करती यह लघुकथा हमारे मन में गहरे धँस जाती है. आज की आधुनिक दशा ही नहीं हमारे समाज का पूरा विकास ही इस तर्ज़ पर हो रहा है. जहाँ तात्कालिक या क्षुद्र लाभ के लिए सार्थक, दीर्घकालिक और विशद सोच को हाशिये पर फेंका गया दीखता है. क्षोभ तो होता ही है.

आपकी लघुकथाएँ जिस तरह से वैचारिकता का वहन करती हैं उनको सहजता से व्याख्यायित किया जाय तो कई पन्ने भरे जा सकते हैं. लघुकथाओं के गुणों का यह सबसे अहम पहलू है आपकी प्रस्तुतियों में खास तौर पर परिलक्षित होता है.
इस सफल और अनुकरणीय प्रस्तुति के लिए हृदय से बधाई और शुभकामनाएँ.
सादर


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 25, 2014 at 2:22pm

आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया से कलम को हौसला मिला है, हृदयतल से सादर आभार आ० डॉ प्राची जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 25, 2014 at 1:57pm

कितनी बार ज़िंदगी में ऐसा होता है जब अनजाने ही छाया और सुकून देने वाले कारणों को ही जड़ से मिटा कर मनुष्य काटों को पोषण देता है... और उफ़ कभी तो जान बूझ कर भी ..

इंगितों के माध्यम से करारा व्यंग करते हुए बहुत ही सार्थक लघुकथा प्रस्तुत की है आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय 

हार्दिक शुभकामनाएं 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 24, 2014 at 12:55pm

आपकी सराहना का दिल से आभारी हूँ आ० राजेश कुमारी जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 24, 2014 at 12:54pm

सत्य वचन आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, लघुकथा पर पुन: पधारने के लिए सादर आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 24, 2014 at 12:37pm

वाह वाह वाह ....थोड़े से शब्दों में कितना करारा  व्यंग्य ,आज की शो बाजी ,अंधानुसरण पर ,बचपन में बड़ों से हम हमेशा यही सुनते थे की घर में काँटों का पेड़ नहीं लगाते शुभ नहीं होता ,किन्तु आज की क्या कहें ,उल्टी मति गंगा के प्रवाह को भी उल्टा कर दें. 

मज्झ बेच के घोड़ी लई

दुद्ध पीणों गए लिद्द चक्क्णी पई  हाहाहा बिलकुल सही है 

बहुत प्रभावशील लघु कथा हुई ,हार्दिक बधाई आपको आ० योगराज जी  

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on February 24, 2014 at 12:17pm

आदरणीय योगराज भाईजी,

आजकल ( आधुनिकता के चक्कर में ) "केक्टस"  ही "खास" हो गया  है , बड़े- बड़े मकान और बंगले देखिये।  पेड़ तो आम आदमी की तरह बेचारा और  कटने को मज़बूर है।  कई पेड़ कटते हैं तब जाकर एक बंगला बनता है और उसे केक्टस से सजाकर खूबसूरत बनाया जाता है। इसी अर्थों में कहा था... सादर


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 24, 2014 at 5:13am

आपकी सराहना के लिए हार्दिक आभार आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी. लेकिन मेरी लघुकथा में तो "ख़ास" को बेहद "आम" और बेहद  "नाकारा" चीज़ को बेहद "ख़ास" बनाने की कवायद हो रही है.  

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