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"उतारो कपड़े इसके , देखो किस तरफ का है " , भीड़ चिल्ला रही थी और वो थर थर काँप रहा था | शहर में अचानक दंगा भड़क उठा था और वो भाग रहा था कि किसी तरह अपने घर पहुँच जाए | लेकिन जैसे ही एक मोहल्ले में घुसा , सामने से आ रही भीड़ ने उसे घेर लिया |
अभी वो कपड़ा उतारने ही जा रहा था कि पुलिस की गाड़ी के सायरन की आवाज आई और भीड़ भाग खड़ी हुई | अब वो पुलिस की जीप में बैठा सोच रहा था कि आज वो तो नंगा होने से बच गया , लेकिन इंसानियत नंगी हो गयी |

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मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on January 23, 2015 at 4:15pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय विनोद खनगवाल जी..

Comment by विनोद खनगवाल on January 23, 2015 at 3:56pm
आदरणीय विनय जी बहुत बढिया लघुकथा।
Comment by विनय कुमार on January 22, 2015 at 10:05pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 22, 2015 at 8:47pm

आदरणीय विजय भाई , बहुर संवेदन शील विषय पर सुन्दर लघुकथा के लिये बधाइयाँ ।

Comment by विनय कुमार on January 22, 2015 at 12:14pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी 

Comment by विनय कुमार on January 22, 2015 at 12:14pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी | सही कहा आपने लोग पहनावे से भी पहचान लेते है अगर पहनावा उस तरह का हो | 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 22, 2015 at 11:53am

दंगे भड़कने पर सच्चाई से ज्यादा अफवाह का बाजार गर्म हो जाता है, पब्लिक में भेडचाल दिखाई देती है, इंसानियत तब कही नहीं दिखाई देती | हरकोई हडभड़ी में होता है ऐसी सच्ची घटनाएं कई बार देखने में आई है|

Comment by somesh kumar on January 22, 2015 at 11:30am

आप ने तो पी.के वाला मूल -मंत्र मार दिया |देखों ,तो किसका ठप्पा है !पर भाई जी लोग बिना कपड़े उतारे ही आप के पहनावे ,ताबीजों और दुसरे माध्यमों से भी अपना ठप्पा जाँच लेते हैं |जो भी हो लघुकथा है और लघुकथा पर बधाई |

Comment by विनय कुमार on January 22, 2015 at 10:22am

बहुत बहुत आभार आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी..

Comment by विनय कुमार on January 21, 2015 at 9:31pm

बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी..

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