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गज़ल - हिरोइन को जान बनाये बैठे हैं ( गिरिराज भंडारी )

आदरनीय वीनस भाई जी की एक गज़ल की ज़मीन पर कहने की एक कोशिश
*****************************************************************************

22  22  22 22 22  2

दुश्मन को महमान बनाये बैठे हैं

गुलशन को वीरान बनाये बैठे हैं

 

सिर्फ जीतने की ख़्वाहिश है जिनकी , वो  

गद्दारों को जान बनाये बैठे हैं

 

इंसानी कौमें हैं खुद पे शर्मिन्दा

ऐसों को इंसान बनाये बैठे हैं

 

जिस्म काटने की चाहत में भारत का

दिल में पाकिस्तान बनाये बैठे हैं

 

उधर मिसाइल , बम की बातें सुन के भी
शांति दूत को शान बनाये बैठे हैं

 

भगत सिंग का देश प्रेम सब भूल गये

हिरोइन को जान बनाये बैठे हैं

 

उस्तादों का हाथ रहा है सर पर , तो

हम जैसे दीवान बनाये बैठे हैं

 **************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

Views: 814

Comment

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Comment by Ram Awadh VIshwakarma on January 26, 2016 at 9:35am
लाजबाब गजल बधाई
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 23, 2016 at 6:56pm

उस्तादों का हाथ रहा है सर पर , तो

हम जैसे दीवान बनाये बैठे हैं-------------------आदरणीय अनुज ---क्या बात है !

Comment by SALIM RAZA REWA on January 22, 2016 at 7:49pm
खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई
Comment by Alok Mittal on January 22, 2016 at 10:54am

लाजवाब ग़ज़ल हुई है भाई जी ....शानदार अशआर निकाले है आपने अपनी कमल से ...

सिर्फ जीतने की ख़्वाहिश है जिनकी , वो  

गद्दारों को जान बनाये बैठे हैं

जिस्म काटने की चाहत में भारत का

दिल में पाकिस्तान बनाये बैठे हैं

दोनों ही बेहतरीन शेर वाह्ह्ह ...बधाई आपको बहुत बहुत

Comment by Samar kabeer on January 21, 2016 at 2:04pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,इस सम्बन्ध में वीनस जी से चर्चा करूँगा |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2016 at 10:47am

आदरनीय समर कबीर भाई , आप जानते हैं मै अरूजी नहीं हूँ , केवल गज़ल कह लेता हूँ । आप इस शेर की तक्तीअ कर लीजिये तो शायद बात समझ मे आये । इस मात्रिक बहर मे  - 22  को 121   या 112 या 211 कर की छूट होती है -- एक मक्बूल शे र मै आदरणीय वीनस भाई जी की किताब ' ग़ज़ल की बाबत ' से पेज 165 मे दिये उदाहर्ण से ले रहा हूँ , आप चाहें तो फोटॉ खींच के डाल दूंगा ।
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने हैं
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने हैं --  शेर सात फेलुन और फा मे है , आप तक्तीअ कर के देखियेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2016 at 10:40am

आदरणीय श्याम नाराइन भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2016 at 10:39am

आदरणीय राम आश्रय भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Samar kabeer on January 20, 2016 at 9:38pm
आपकी ग़ज़ल के अरकान हैं;-फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फा यानी 22 22 22 22 22,इस लिये इसकी तक़्ति भी इन्ही अरकान से की जायेगी,क्या कहते हैं आप ?
Comment by Shyam Narain Verma on January 20, 2016 at 5:45pm
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 

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