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कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है

तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //1//

मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे

पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//

तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है. //3//

बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी

नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है //4//

सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर

हमें आँधियों से शिकायत नहीं है //5//

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 19, 2013 at 2:17pm

मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे,पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं ।

खूबसूरत गज़ल की हार्दिक बधाई आ. प्राचीजी ॥

Comment by annapurna bajpai on December 19, 2013 at 1:05pm

बहुत खूब !!  आ० प्राची जी , बहुत ही सुंदर गज़ल , अनेकों बधाइयाँ ।  

सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर................. इसमे आस हर...की जगह यदि ..हर आस.. होता तो ठीक होता ऐसा मुझे लगता है । आप जैसा समझें । शुभकामनायें । 

Comment by Shyam Narain Verma on December 19, 2013 at 1:04pm

बहुत उम्दा | बधाई आप को ......


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 19, 2013 at 1:01pm

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, मैं "कभी कभी" सिर्फ रचनायों पर ही आता हूँ वर्ना पूरा वक़्त तो यहीं रहता हूँ, साईट के अन्य कामों और दफ्तरी उत्तरदायित्व के दबाव के चलते बेहद व्यस्त रहने के कारण अक्सर बहुत अच्छी अच्छी रचनायों पर चाह भी कुछ कह नहीं पाता हूँ । लेकिन आश्वस्त रहें, यहाँ की हर रचना और हर गतिविधि पर मेरी नज़र हमेशा लगी रहती है. सादर।    

Comment by Meena Pathak on December 19, 2013 at 12:58pm

आदरनीय प्राची जी ,..

मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे

पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं....// लाजवाब

कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है

तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //...... क्या कहने .. बहुत खूब 

न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम

मुकरना हमारी भी आदत नहीं है//....बेहतरीन 

सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर

हमें आँधियों से शिकायत नहीं है //....... क्या कहूँ .. एक एक शेर लाजवाब है प्राची जी बहुत बहुत बधाई आप को | सादर 

 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 19, 2013 at 12:43pm

आदरणीया प्राची जी

आपने बड़ी सुन्दर ग़ज़ल कही i  --- बहुत सब्र है चाहतो में तुम्हारी ----- बेहतरीन i आपको साधुवाद i

आदरणीय प्रभाकर जी ने जो संकेत किया हा उसके अनुसार ---वादों तलक बढ़ सकेगे कभी हम i मुकरना हमारी भी आदत नहीं है i------शायद  ऐसा भाव होता तो अधिक मुखर, प्रांजल और स्पष्ट होता i प्रभाकर जी कभी कभी ही आते हैं , पर जब आते है महीन छन्नी लेकर आते है  i  गजल की खूबसूरती पर कोई if & but  नहीं है i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 19, 2013 at 11:36am

मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे

पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//वाह्ह्ह बहुत सुन्दर शेर ,शानदार ग़ज़ल हुई ,जो आदरणीय योगराज जी ने इंगित किया उस शेर पर मैं भी अटक रही हूँ ---मुकरना हमारी आदत नहीं है इसी लिए वादा करने से डर लग रहा है कि पूरा कर सकेंगे या नहीं ऐसा कुछ भाव समझने का प्रयास कर रही हूँ ,किन्तु हमारी भी करने से मिसरा ऐ उला से रिलेटेड हो रहा है तभी सम्प्रेषण में स्पष्टता की कमी हो रही है खैर विश्वास है आप इसे  जरूर दुरुस्त कर लेंगी बहरहाल दिली बधाई स्वीकारें  


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 19, 2013 at 11:25am

डॉ प्राची सिंह जी, बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है. मेरी दिली बधाई स्वीकार करें। निम्नलिखित शेअर हासिल-ए-ग़ज़ल लगा जो सीधा  दिल में उतर गया;

//मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं // इस शेअर पर एक्सट्रा वाह वाह.

इस ग़ज़ल के तीसरे शेअर की तरफ आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा:  

//न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम
मुकरना हमारी भी आदत नहीं है//

न जाने क्यों इस शेअर में कुछ बात अधूरी सी लग है. इसमें आप ने क्या कहना चाहा है वह भी स्पष्ट नहीं है. दोनों मिसरे अपने आप में बेशक मुकम्मिल हैं पर दोनों मिसरों में सामंजस्य भी नहीं बन पा रहा.

//मुकरना हमारी भी आदत नहीं है// यहाँ "हमारी भी" आ जाने से दरअसल यह मिसरा एक कम्पेरेटिव स्टेटमेंट की तरह हो गया है,  लेकिन पहले मिसरे को इस से कुशन नहीं मिल पा रहा. इसलिए इस शेअर में कुछ इस तरह की तरमीम चाहिए कि दोनों मिसरों में रब्त भी बने और बात भी साफ़ होकर सामने आए.    

Comment by savitamishra on December 19, 2013 at 10:21am

बहुत सुन्दर .............

बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी

नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है

Comment by AVINASH S BAGDE on December 19, 2013 at 10:11am

कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है

तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //1//वाह!वाह!!

मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे

पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//क्या बात है !

न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम

मुकरना हमारी भी आदत नहीं है//3//सपाट बयानी 

बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी

नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है //4//वाह ! डॉ.प्राची जी 

सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर

हमें आँधियों से शिकायत नहीं है //5//

सुबह सुबह एक सुंदर रचना ने मन खुश कर दिया वाह!

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