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नहीं पाँव दिखते जहाँ पर खड़े हो
बताओ जरा क्या तुम इतने बड़े हो?
उड़ाया जिसे ठोकरों से हटाया
उसी ख़ाक के तुम छलकते घड़े हो
जमाना नया है नयी नस्ल आई
पुराने चलन पर अभी तक अड़े हो
झुकी कायनातें झुका आसमां तक
न सोचो खुदी को फ़लक पे जड़े हो
वही रास्ते हैं वही मंजिलें हैं
वही कारवाँ है मगर तुम छड़े हो
जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले
निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो
कभी आके लेलो जरा साँस बाहर
कहीं घुट न जाए गुमाँ में गड़े हो
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० योगराज जी ,ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना से ग़ज़ल धन्य हो गई हार्दिक आभार आपका .
आ० खुर्शीद जी ,ग़ज़ल पर आपकी सराहना पाकर उत्साहित हूँ तहे दिल से आभार आपका |
नहीं पाँव दिखते जहाँ पर खड़े हो
बताओ जरा क्या तुम इतने बड़े हो?..आदरणीया राजेश जी बेहतरी ग़ज़ल है हर शेर मनभावन ..बस थोडा असमंजस है वो ये की इस शेर में तुम को लघु लेकिन अगले में
उसी ख़ाक के तुम छलकते घड़े हो..में तुम को दीर्घ माना गया है ...मैंने अपनी जिज्ञासा वश यह प्रश्न किया है अन्यथा न लीगियेगा सादर प्रणाम केसाथ
आदरणीया राजेश जी
उड़ाया जिसे ठोकरों से हटाया
उसी ख़ाक के तुम छलकते घड़े हो.................वाह! बहुत गहरी बात कहता शेर हुआ है
जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले
निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो ..............शानदार शेर
इस बेमिसाल कहन के लिए दिल से ढेर सारी बधाई
//जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले
निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो //
क्या कहने हैं आ० राजेश कुमारी जी, वाह।
जमाना नया है नयी नस्ल आई
पुराने चलन पर अभी तक अड़े हो
आदरणीया राजेश कुमारी जी ,बहुत खुबसूरत ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन
आ० गिरिराज जी,आपकी प्रतिक्रिया सदैव ही मेरा उत्साह वर्धन करती रही है आपको ग़ज़ल पसंद आई मानो मुझे पारितोषिक मिल गया ,दिल से आभारी हूँ .सादर
सोमेश कुमार जी,ग़ज़ल की गहराई तक पँहुच कर विश्लेषण का तहे दिल से शुक्रिया आपको अशआर पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हुआ,
जितेन्द्र गीत भैया ,आपका दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया.
शिज्जू भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरी मेहनत सफल हुई तहे दिल से आभार आपका
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