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खुद को ढूँढती फिरूँ,कूप कोई अंध में

कभी अतीत फंद में ,कभी भविष्य द्वन्द में 

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में 

शब्द ठिठके से खड़े ,भाव बहने पे अड़े  

अश्रु भी लो अब यहाँ ,बन गए जिद्दी बड़े

अब रुकेंगे ये कहाँ छन्द  के किसी बंद में

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में

प्रेम में रहस्य क्या ,जो छिपा वो प्रेम क्या

 प्रेम हो  कुछ इस तरह ,उदय  रवि लगे नया

खुल जाय हर इक गिरह, मुस्कान एक मंद में

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में 

ह्रदय धरा कभी हरित ,मोह से कभी द्रवित 

भाव हैं सभी विषम ,मन खड़ा बड़ा भ्रमित

कैसे मन रहे ये सम शोक में आनंद में 

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में

मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 6, 2015 at 12:58pm

आदरणीया मन में चलते इस अंतर्द्वंद को बखूबी चित्रित किया है आपने ..इस रचना पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Sushil Sarna on October 5, 2015 at 8:06pm

प्रेम में रहस्य क्या ,जो छिपा वो प्रेम क्या
प्रेम हो कुछ इस तरह ,उदय रवि लगे नया
खुल जाय हर इक गिरह, मुस्कान एक मंद में
खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में


आदरणीया अंतर्मन के भावों की सुंदर प्रस्तुति हुई है … हार्दिक बधाई स्वीकार करें

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 5, 2015 at 3:48pm
मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी आदरणीया prtibha pande जी।
Comment by kanta roy on October 5, 2015 at 3:28pm

प्रेम में रहस्य क्या ,जो छिपा वो प्रेम क्या
प्रेम हो कुछ इस तरह ,उदय रवि लगे नया
खुल जाय हर इक गिरह, मुस्कान एक मंद में
खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में.------ वाह !!! बहुत ही उम्दा पंक्तियाँ हुई है। बधाई आदरणीय प्रतिभा जी

Comment by pratibha pande on October 5, 2015 at 1:13pm

सहज सीधा अकृत्रिम और निजी स्वर ,    रचनापर आने और गीत को इतने अच्छे से समझाने के लिए आपका आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, सादर  

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 5, 2015 at 9:11am

- 'गीत - सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी नि:शब्द - संगीत से स्वर-सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व स्वर का पूंजीभूत रूप है।' भगवतशरण उपाध्याय ने गीत की परिभाषा करते हुए लिखा है - 'गीतिकाव्य कविता की वह विधा है, जिसमें स्वानुभूति-प्रेरित भावावेश की आर्द्र और तरल आत्माभिव्यक्ति होती है।' इसी सन्दर्भ में केदार नाथ सिंह कहते हैं - 'गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है ग़ीत सहज, सीधा, अकृत्रिम होता है।'

Comment by pratibha pande on October 4, 2015 at 11:11am

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , आपकी बिन्दुवत टिप्पणियों को समझने का प्रयास कर रही हूँ Iफिर भी किसी गीत के मूल तत्व क्या हैं ,पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पा रहे हैं Iध्वन्यात्मक तुकांतता को भी समझने की  कोशिश कर रही हूँ Iआपने अपना कीमती समय इस रचना को दिया ,मै आपकी हार्दिक आभारी हूँ एवं आपके मार्ग दर्शन की सदेव आकांक्षी रहूंगी I एक गीत और तुकांत रचना में क्या अंतर है ये भी आपसे जानना चाहूंगी I सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 4, 2015 at 10:12am

आदरणीया प्रतिभाजी, आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ.

आपकी प्रस्तुत रचना का भावपक्ष चाहे जितना प्रभावी हो गीत के आवश्यक तत्त्व को समाहित करने केलिए ध्यान देना ही होगा. आप चूँकि स्वयं प्रतिभावान एवं जिज्ञासु हैं इसीकारण आपसे स्पष्ट कह रहा हूँ. आपके गीत की पहली पंक्ति पंचचामर छन्द की सुन्दर बानग़ी है. इसी कारण लघु गुरु की सुन्दर आवृति बनी है. भले यह अनजाने ही हुआ है. क्योंकि आगे की पंक्तियों मे आप इसी आवृति से उत्पन्न लय की खोजती दिख रही हैं. चूँकि आपको इस छन्द की जानकारी नहीं है अतः आपका सारा प्रयास अनगढ़ हो गया है. इसी कारण आदरणीय गिरिराजभाई को आपकी कतिपय पंक्तियो में लयबद्धता दिख रही है.

दूसरे, सही शब्द द्वंद्व है न कि द्वन्द  जैसा कि आपने लिखा है. फिर, आप प्रत्येक पंक्ति में मात्राओं की कुल गणना समान रखें. तथा तुकान्तता पर आपकी पिछली पोस्ट पर भी शायद में लिखा था यहाँ भी कह रहा हूँ, ध्वन्यात्मक तुकान्तता को एकदम न अपनायें. लोकगीतों और साहित्यिक गीतों में अंतर होता ही है. और एक रचनाकार के तौर पर भी आप लोकगीत नहीं ही प्रस्तुत कर रही हैं.

यह अवश्य है कि सतत एवं दीर्घकालिक प्रयास ही रचनाकर्म को नियत तथा संयत कर सकता है. लेकिन इसके पूर्व सतत एवं दीर्घकालिक अभ्यास भी आवश्यक है. बिना सार्थक अभ्यास के हुआ कोई प्रयास बिना पूरी तैयारी के बार-बार पानी में कूदने की तरह होगा जब किसी अन्य तैराक को आना पड़ेगा. अब पानी में व्यक्तिगत सामर्थ्य के बल पर कूदने और किसी तैराक की अपेक्षा के बल पर तत्पर होने में जो अंतर है वही काव्यकर्म के संदर्भ में लिया जाय.

लेकिन यह अवश्य है कि आपकी कोशिश आश्वस्तिकारी है. हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभेच्छाएँ

Comment by pratibha pande on October 3, 2015 at 6:15pm

आदरणीयगिरिराज जी  आप ने रचना पर प्रस्तुत होकर  उत्साह वर्धन किया आपका हार्दिक आभार ,जिन बातों  की तरफ आपने ध्यान दिलाया है उनको साधने की तरफ मै भविष्य में और भी प्रयास रत रहूंगी ,आशा है आप आगे  भी मार्ग दर्शन करते रहेंगे  सादर 

Comment by pratibha pande on October 3, 2015 at 6:08pm

आदरणीय महर्षि जी ,आपको रचना पसंद आई ,आपका तहे दिल से आभार 

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