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ग़ज़ल -फिर ‘नूर’ हर्फ़ हर्फ़ वहाँ तितलियाँ रहीं.

221/2121/122/1212

.
आसानियों के साथ परेशानियाँ रहीं, 
गर रौशनी ज़रा रही, परछाइयाँ रहीं.
.

क़दमों तले रहा कोई तपता सा रेगज़ार, 
यादों में भीगती हुई पुरवाइयाँ रहीं.
.

नाकामियों में कुछ तो रहा दोष वक़्त का,  
ज़्यादा कुसूरवार  तो ख़ुद्दारियाँ रहीं.
.

ऐसा नहीं कि तेरे बिना थम गया सफ़र
हाँ! ज़िन्दगी की राह में तन्हाइयाँ रहीं.
.

क़िरदार.. कुछ कहानी के, कमज़ोर पड़ गए
कुछ लिखने वाले शख्स की कमज़ोरियाँ रहीं.
.

मिलते दिखे उफ़क पे ज़मीं-आसमाँ मगर,
दोनों के दरमियान बहुत दूरियाँ रहीं.
.

हिन्दी की क्यारियों में जो उर्दू के गुल खिले
फिर ‘नूर’ हर्फ़ हर्फ़ वहाँ तितलियाँ रहीं.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 20, 2016 at 8:30am

बहुत खूबसूरत गजल....दाद कुबूल फर्माये. सादर आ० नीलेश भाई जी

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 20, 2016 at 8:02am

शुक्रिया आ. रामबली गुप्ता जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 20, 2016 at 8:02am

शुक्रिया आ. राहुल जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 20, 2016 at 8:01am

शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 20, 2016 at 8:01am

शुक्रिया आ. दिनेश जी 

Comment by रामबली गुप्ता on March 19, 2016 at 4:36pm
वाह वाह आदरणीय बहुत ही सुंदर रचना
Comment by Rahul Dangi Panchal on March 19, 2016 at 2:57pm
वाह वाह वाह लाजवाब ग़ज़ल हुई शे'र दर शे'र दाद वाह
Comment by narendrasinh chauhan on March 19, 2016 at 12:46pm

शानदार रचना 

Comment by दिनेश कुमार on March 19, 2016 at 8:03am
शानदार अशआर। मतला ता मक़्ता क्या कहने !! दिली दाद आ. निलेश सर जी। वाह वाह।

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