भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,
चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।
पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,
मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।
हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,
बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।
इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,
धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।
शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,
सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।
आज हिन्दी दिवस पर
22 122 22 // 22 122 22 बहर में
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बासुदेव जी,
हिंदी की प्रसंशा में इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए शुभकामनाएं.
इस पर हुई बहस में भी बहुत उपयोगी जानकारियां हैं. सभी प्रतिभागियों को धन्यवाद.
सादर
जनाब तस्दीक अहमद साहब,
मशहूर अरूजी आरिफ हसन खान साहब का एक उद्धरण सामने रख रहा हूँ जिससे सारी बात स्पष्ट हो जायेंगी :
"लेकिन बह्र रमल का वजन 'फइलात फायलातुन फइलात फायलातुन' जिसमें फइलात मश्कूल है इस पर तस्कीन का अमल मुनासिब नहीं (अगरचे इसमें भी ''फ'' ''ऐन'' और "ल" तीनों हर्फ़ मुतहर्रिक हैं ), क्योंकि अगर यहाँ तस्कीन का अमल कराया जाएगा तो हासिल होगा फेलात बसुकून ऐन यानी मफऊल और ''मफऊल फायलातुन मफऊल फायलातुन" बहरे रमल का वजन नहीं रहेगा बल्कि मजारे का वजन हो जाएगा. इस लिए ये जरूरी है कि तस्कीन का अमल सिर्फ ऐसे ही अरकान पर कराया जाए, जिस के नतीजे में बहर न बदल जाए." - आरिफ हसन खान, मिराज उल अरूज, पृष्ठ 54
जाहिर सी बात है जैसा कि मैंने कहा था : (221 2122 221 2122 मफऊल फायलातुन मफऊल फायलातुन ) का 'रमल,मुसम्मन,मशकूल,मुसक्किन' होना मुमकिन नहीं है.
सादर
जनाब तस्दीक अहमद साहब,
'मुज़ारे मुसम्मन अख्रब मक्फूफ सालिम' (मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन) पर ही तख्नीक के अमल से बह्र 'मजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ मुखन्नक सालिम (मफऊल फाइलातुन मफऊल फाइलातुन) हासिल होती है , ( 'मुज़ारे मुसम्मन अख्रब' सामान्यतः इसे इसी नाम से जाना जाता है लेकिन अरूजी नज़रिए से ये गलत नाम है क्यों अखरब जिहाफ़ हश्व में इस्तेमाल नही हो सकता ) इस तरह से ये एक तरह से जुड़वां बह्रें हैं. इनको आप रमल की जगह मजारे के इस्तेमाल के नज़रिए से नहीं देख सकते. और यहाँ तख्नीक का अमल है तस्कीन का नहीं.
काफिये का मसला मैंने जनाब समर कबीर साहब के हवाले कर दिया है देखिये क्या कहते हैं.
सादर
जनाब समर कबीर साहब, आदाब,
'कुछ तो है, जिसकी पर्दा दारी है'
बात ठीक उलटी है फोन पर की गयी बातें निजी होकर रह जाती हैं, परदे पीछे दो लोगों ने क्या खिचड़ी पकाई दूसरों को इसका पता नहीं होता. पटल पर किया गया लिखित संवाद ज्यादा पारदर्शी होता है और सब के लिए फायदेमंद होता है.
निजी बातों के बजाय आप इस ग़ज़ल के मुद्दों पर बात करें तो आपकी जानकारी का फायदा सबको मिलेगा.
मसलन ये कि 221 2122 221 2122 से तकती करने पर इस ग़ज़ल का काफिया गिरता है क्या इसे गिराया जा सकता है?
और नहीं तो क्यों नहीं?
सादर
जनाब नीरज साहिब , किताब कलीद उरूज़ में एसा कहीं नहीं लिखा है कि फइलात की जगह सिर्फ़ एक बार मफऊल
कर सकते हैं | इसी किताब में पेज नंबर 295 पर बह्र -मुज़ारे मुसम्मन अख्रब मक्फूफ सालिम दी है जिसके अरकान
तो (मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन) हैं लेकिन रियायति अरकान ( मफऊल फाइलातुन मफऊल फाइलातुन ) हैं
जिसमे शेर ( हर दाग़े दिल है गोया तारीख मेरे तन में ---जलवे हैं दोस्तों के पैदा इसी चमन में )की तक़्ति इसी बह्र में की गई है |
एक और किताब फने शायरी ---मौलाना सय्यद ज़हूर शाह जहाँपुरी की इस में पेज -32 पर बह्र मुज़ारे मुसम्मन अख्रब
जिसके अरकान (मफऊल फाइलातुन मफऊल फाइलातुन) हैं, जिस में शेर ( इक गम कदा मैं यारब मैं किस से दिल लगाऊं --
जिस शै को देखता हूँ आमादए फ़ना है ) की तक़्ति इसी बह्र में की गई है | आपने जो क़ाफ़िया न गिराने की बात कही है , तो क़ाफ़िए में ये गिराई
जा रही है जिसके बगैर बह्र मुकम्मल नहीं हो सकती -----जो बह्र के हिसाब से सही है
सादर
जनाब तस्दीक अहमद साहब,
पिछली पोस्ट में मैंने जल्दी में 'मुल्ला गयासुद्दीन और ख्वाजा नसीरुद्दीन तूसी' की जगह सिर्फ 'मुल्ला गयासुद्दीन तूसी' लिख दिया है. दोनों अरूज के माहिर थे लेकिन वस्तुतः ख्वाजा नसीरुद्दीन तूसी ने ही 'तस्कीन' को अरूज में शामिल किया था और इसके उसूल तय किये थे.
बहस दूसरी दिशा में चली गयी है. वास्तविक समस्या ये है कि 221 2122 221 2122 से तकती करने में काफिये को गिराना पड़ता है और इस ग़ज़ल का काफिया ऐसा नहीं है जिसे गिराना मुमकिन हो.
सादर
जनाब समर कबीर साहब, आदाब,
नबर साझा करने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अभी मैं नया हूँ और चींजों को समझाने की प्रक्रिया में हूँ. आश्वस्त होने में थोडा वक्त लगेगा.
मैं ज्ञानी जैसी उपाधि के काबिल नहीं हूँ. ऐसी उपाधियाँ आप जैसे उस्तादों पर ही फबती हैं.
सादर
आ. तस्दीक़ साहब,
मैंने अपनी दलील में एक क़िताब का स्क्रीन शॉट भेजा है... आप या अन्य कोई भी जबतक इससे बेहतर उदाहरण नहीं देते...
मैं अरकान २१२२, १२२/ २१२२, १२२ ही क्यूँ न मानूँ?
सादर
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