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काँधे पर सभी शरीर गए (इस्लाह के लिए)

16 रुकनी ग़ज़ल

किस किस के नाम गिनाऊँ मैं, जो इस दिल मे भर पीर गए
जिस जिस को हिफाज़त सौंपी थी, वो सारे ही दिल चीर गए

वो तन्हा छोड़ गए लेकिन मैं उनको दोष नहीं दूँगा
जो तोहफे में इन दो प्यासे नयनों को दे कर नीर गए

हर गीत ग़ज़ल अशआर सभी हैं जिन लोगों की सौगातें
आबाद रहें वो, जो मुझ को, दे कर ग़म की जागीर गए

हर ख़ाब कुचल डाले मेरे, तुम रौंद गए अरमानों को
पर मुआफ़ किया मैंने तुमको, तुम चाहे कर तफ़्सीर गए

रातों की जिम्मेदारी इक लक्ष्मण को थी अब पंकज को
कम से कम मुझ नाची'ज़ को वो दे कर इतनी तौक़ीर गए

पैदल गाड़ी चाहे जिस भी साधन से आप चलें, लेकिन
अंतिम यात्रा में काँधों पर सबके निर्जीव शरीर गए

मौलिक अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 29, 2018 at 9:23am

आदरणीय अजय तिवारी जी बहुत आभार, शिकस्ते-नारवा का ज्ञान मुझे बिल्कुल नहीं है। जहाँ तक 121 का सवाल है, इस पर पहले भी बहुत चर्चा हुई है, लेकिन मुझे लगता है, कि 22 वाली बहरों को आप सिर्फ 22 के संदर्भ में देखते हैं, दर असल उन्हें 2222 के संदर्भ में पूर्ण देखिए... कुछ शब्द जैसे....गीत-गान, शब्द-अर्थ, साथ-साथ इन पर भी गौर करें? 

Comment by Ajay Tiwari on August 29, 2018 at 7:12am

आदरणीय पंकज जी, अच्छे अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.

'रातों की जिम्मेदारी एक लखन को थी अब पंकज को'    इस पंक्ति में शिकस्ते-नारवा है. 

'दुनिया की अंतिम यात्रा में, काँधे पर सभी शरीर गए'    इस पंक्ति का दूसरा हिस्सा बह्र में नहीं है. यह मुतदारिक की ग़ज़ल है; इसमें फ़ऊलु (121) नहीं आ सकता. 'सभी' की जगह 'सारे' रखा जा सकता है या कुछ और सोचें.

सादर

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2018 at 7:46pm

आदरणीय बसन्त जी बहुत आभार

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2018 at 7:46pm

आदरणीय तेजवीर सर बहुत बहुत आभार, यही शब्द प्रेरक हैं, जो आगे और लिखते रहने के लिए बल प्रदान करते हैं।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2018 at 7:45pm

आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम......आपकी इस्लाह, के सहारे ही मैं सीख पा रहा हूँ.....आप अपना स्नेह मुझ पर सदैव यूँ ही बनाये रखियेगा।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 28, 2018 at 5:39pm

वाह लाजबाब गजल 

Comment by TEJ VEER SINGH on August 28, 2018 at 2:05pm

हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज कुमार जी। बेहतरीन गज़ल।

पैदल गाड़ी चाहे जिस भी साधन से आप चलें, लेकिन
दुनिया की अंतिम यात्रा में, काँधे पर सभी शरीर गए

Comment by Samar kabeer on August 28, 2018 at 12:33pm

अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'जो तोहफे में इन दो प्यासे, नयनों को दे कर नीर गए'

इस पंक्ति में 'तोहफे' को "तुहफ़े" कर लें ।

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