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आदरणीय विजय शंकर जी,
तुम तो अपने लिए लिखते हो,
और कहते हो साहित्य दर्पण होता है,
तुम जो गढ़ते हो वो कितना धुंधला दर्पण है ,
धुंधला नहीं , वैज्ञानिक है, दिखाता कुछ है,
बताता कुछ है, होता बिलकुल ही कुछ और है।
अलग तरह का लिखते हो, लिख कर कुछ अलग दिखते हो,
जिनके लिए लिखते हो , उनसे ही अलग दिखते हो,
बड़ी ही शालीनता से आपने प्रत्यक्ष व् परोक्ष व्यक्तित्व को दर्शा दिया। बहुत सुन्दर सर
डॉ.विजय भाई,साधारण सपाट पंक्तियों में खूबसूरत ब्यंग बाण है, कोटिश बधाई I
आ० विजय सर i
आपकी कविता ने सौरभ जी की निम्न कविता की याद ताजा कर दी i
आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?
वास्तव में आज के साहित्य की यह सबसे गंभीर समस्या है i आ० सौरभ जी ने अपनी टीप में विस्तार से अपनी बात कही है जो ध्यानव्य ही नहीं मननीय भी है i सादर i
आ. विजयशंकर जी ,,आपकी कविता पर आपको बधाई,काफी गहराई है इस कविता में ,शायद इसे पढ़ कर निःस्वार्थ भाव वाला कवी जाग जाये |
इस रचना में जिन तरह की कविताओं को इंगित किया गया है, इन्हीं तरह की कविताओं को एक विशेष वर्ग द्वारा अमूर्त कविताओं की श्रेणी का कहा गया. लेकिन कहते हैं न 'अति सर्वत्र वर्जयेत'. ऐसी कविताओं की अति हुई तो आम पाठक साहित्य से बिदकने लगा. जब पानी सिर से गुजरने लगा तो साहित्य-समाज को गीति-काव्य की पुनः आवश्यकता हुई. चूँकि गीत पहले ही वायवीय भावनाओं और रुमानी दुनिया की गलियों में भटके हुए थे. संवेदनशील पाठक और रचनाकारों को अभिव्यक्ति के नये माध्यम की आवश्यकता महसूस हुई. यही आवश्यकता कारण बनी नये तेवर के ग़ज़लों की और नवगीतों की. गेयता का आग्रह और कथ्य का सान्द्र संप्रेषण जहाँ ग़ज़लों में दिखने लगा वहीं नवगीत विन्यास और स्पष्टता से विन्दुवत भाव उकेरने लगे.
आदरणीय विजय शंकरजी, आपकी चिन्ता समीचीन है. इसी तरह की चिन्ता ने कविताओं के लिए जीवनी-शक्ति का काम किया है. कवितायें और गीत अपने नये रूप और मानकों में जी उठे हैं. साहित्य पुनः सरस और साहसी हो गया है.
इस अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक धन्यवाद और अनेकानेक बधाइयाँ.
सादर
इस कविता पर पुनः आता हूँ
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, आपकी यह कविता गज़ब का व्यंग्य है, सीधी सपाट बाते. इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई निवेदित है सर.
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