चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें (2) की द्वितीय कड़ी में सब अतिथि blogers का स्वागत है. आप के पर्संसात्मक comments का धन्यवाद यह एक लम्बी काव्या कथा है कृपया बने रहें. कोशिश करूंगा आप को निराश न करूं. यदि रचना बोर करने लगे तो कह देना. मैं दुसरे टॉपिक्स में शिफ्ट हो जाऊंगा.
Dr. Swaran J Omcawr
ज्ञानी
दिग्भ्रमित! हतप्रभ!!
...जन्मजात गूंगे सा!!!
एक एक शब्द जोड़ कर कहता है.
‘आह! गंगे क्या कह दिया!
क्या कह रही हो..’
गंगा जी की बीमार वाणि-
‘पास आओ तो कुछ कहूं.
बूढ़ी हो गई हूं.
इतना साफ़ स्पष्ट नहीं बोल सकती
जैसे तुम स्टेजों पर घंटों प्रवचन करते हो.
शब्द कम हैं मेरे वो भी न सुन पाये तो...
अपना हाथ दो
और अपना कान भी...’
ज्ञानी किंकर्तव्यविमूड़,
कुछ कहता नहीं
यंत्रवत ...बैठ जाता है गंगा जी के पास
ठंडे जल की धारा जो मानव मल से धुंधली हो चुकी है
उसकी देह और आत्मा दोनो को भिगो रही है!
श्री गंगा उवाच-
‘ऋषि मुनि लोगों ने ..
कितना ज्ञान दिया
वेदों की पुराणों की रचना की
अपने ज्ञान से समृद्ध किया मानव मन
पूरा चैगिरदा वातावरण
पर क्या वे मानव मन को बदल सके?
वे वेद पुराण मिल कर
मानव मन तो वैसा ही बना रहा- आज भी
कपटी! लोभी! कामुक !
ज्ञान भी वहीं मन के भीतर कपट भी वहीं
समझ में नहीं आता कपट और ज्ञान एक साथ कैसे रह लेते हैं मानव मन में!
तब उन प्रकृति के पुजारी,
केवल मूलभूत तत्वों को देवत्व देने वाले,
उन महा-मुनियों महा-ऋषियों ने जाना-
कि ज्ञान से माया का नाश नहीं होता!
बल्कि ज्ञान से माया आष्चर्यजनक ढंग से रुपांत्रित हो जाती है!
और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
प्रथ्म ज्ञान ने माया को समझा
फिर उसी ज्ञान ने माया को सात पर्दों में छुपा लिया
टोह लेने वाला सहस्रों प्रयत्न कर ले
जान न पाये कि वह सरल से दीखने वाले ज्ञानि के भीतर
कितना बडा मायावी मन है
ज्ञान ने जितनी सूक्ष्म व्याख्या माया की की,
उतना बड़ा माया का पासार भीतर बाहर जमा लिया!
वे सभी ज्ञान गृह इस देश में ही तो हैं
यहां अराद्दय देव स्वर्ण सिंहासनों पर विराजमान होते हैं
ज्ञान के परम तीरथ स्थल हैं वे
यहां ज्ञान माया के जाल से मुक्ति के लिए छटपटा रहा है
तो ऋषि मुनि लोगों ने ज्ञान से बाहर निकलने की युक्ति बताई मानव को
वेदांत की उपनिषदों की रचना की
ज्ञान को केवल बुद्धि की समझ माना
और अनुभूति को उच्चतम.
बताया कि शब्द तो मायाजाल है
प्राकृति के भीतर के सत्य को जानने के लिये
उस के आवर्ण को
शब्दों के वाण से नहीं भेदा जा सकता
शब्दों के सौंदर्य से,
वाक्यचात्रुता से उसे कुछ लेना देना नहीं
सोच से विचार से
विद् से बनती है विद्या
या विद्या के संग्रह हैं वेद
इन से प्राकृति के खोल को तो समझा जा सकता है
लेकिन प्राकृति के भीतरी सत्य को नहीं
वह केवल आत्मा (self) की पकड़ में आता है.
वह महानतम सत्य केवल आत्मा की आत्मानुभुति ही तो है
वह आत्मा का यग्य ही तो है
बाह्य हवन यग्य सब मायाजाल
वहां दो आत्मायें भी जुड़ें तो भीड़ बनती है
प्रेम गली अति सांकरी भैया
ता में दो न समायें
तुम स्वयं और गोविंद के साथ गुरु को भी जमा किये हो
वहां केवल एक आत्मा! केवल एक पारब्रह्म!
केवल एक तार केवल एक रास्ता!
संवाद से बनता है पहले वाद फिर विवाद
ज्ञानी का, भक्त का, संवाद सिर्फ उस से होता है
जिसे वह जानना चाहता है-आत्मा, सैल्फ या पारब्रह्म.
वह अपना माध्यम स्वयं
स्वयं का गुरु, स्वयं का पुजारी
किसी अन्य माध्यम, गुरु का पुजारी का इस ज्ञान से कोइ रिष्ता नहीं
गंगा कहती रहीं- ज्ञानि सुनता रहा....
(शेष बाकी ....)
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
पुनः धन्यवाद सौरभ पाण्डेय जी
रचनाओं को असहज करती टंकण त्रुटियों या भाषायी दोष से अवगत हो रहा हूँ आप इस के लिए सजग हैं जान कर बहुत अच्छा लगा अक्सर हम लोग भाषा की पूर्णता को महत्व नहीं देते
//मैं कोई बड़ा लेखक नहीं मेडिकल प्रोफेशन से जुडा एक प्रधायापिक हूँ...//
आदरणीय स्वर्ण जी, बड़ा लेखक या मुख्य धारा का लेखक आदि-आदि क्या संज्ञाएँ हैं, ये किनके लिए प्रयुक्त होती हैं, मुझे कभी स्पष्ट नहीं हुआ. आदरणीय, आपको विदित हो कि ओबीओ पर लिखने-पढ़ने वाले अक्सर सदस्य प्रोफ़शनल्स ही हैं जो अपने-अपने कार्यालयों से समय निकाल कर साहित्य-सेवा का सुख व आनन्द लेते हैं. यह व्यक्ति के रूप में सबकी संवेदनशीलता ही है कि हालिया छोटी-बड़ी घटनाएँ उन्हें यथोचित रूप से प्रभावित करती है. चलिये, कसेकम आप पाठन-पठन की दुनिया से किसी तरह से संबद्ध तो हैं. हम अधिकांश के जीवन में तो विद्यालय या महाविद्यालयों के परिसर छूटे एक लम्बा अरसा हो गया है.
//प्रस्तुत कविता मेरी मौलिक रचना है .. . आप पूरे नेट पर सर्च डाल कर चेक कर लें..//
जब लेखक ने स्वघोषित कर दिया कि उसकी रचना मौलिक व अप्रकाशित है तो फिर ऐसा नहीं होने पर यह उस लेखक की ही नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह असत्य घोषणा न करे.
आपका इस मंच पर होना नयी रौशनी एवं ताज़ा हवा की तरह है. यह अवश्य है कि आपका थोड़ा संयम और आपकी थोड़ी सजगता रचनाओं को असहज करती टंकण त्रुटियों या भाषायी दोष से मुक्त कर सकती हैं.
सहयोग बना रहे.
सादर
धन्यवाद सौरभ पाण्डेय जी
डॉक्टर स्वर्ण जी, आपकी संवेदनशीलता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका हूँ. समाज के प्रति जिम्मेदारी का कैसे निर्वहन हो यह आपकी लेखिनी का हेतु है. मन प्रसन्न हो गया है, आपके उद्येश्य को बूझ-जान कर.
लेकिन, आदरणीय, संप्रेषण हेतु प्रयुक्त साधन भी कुछ अर्थ रखता है. आप अपनी कहने के फेर में इतने कैजुअल हों कि साहित्य ही हाशिये पर चला जाये, यह कोई शुभचिंतक पाठक नहीं चाहेगा.
आप टंकण त्रुटियों की तरफ़ विशेष ध्यान रखें, आदरणीय.. दूसरे, भाव का अजस्र प्रवाह बहुत आवश्यक है लेकिन आपके शब्द और उनका अनुशासित संयोजन ही उनभावों को कविता बनाते हैं.. .
पूर्ण विश्वास है, आदरणीय, आपकी प्रखर संवेदनशीलता मेरे कहे के अन्वर्थ को आपके लिए स्पष्ट करेगी. सहयोग बराबर बना रहे.
सादर
//प्रेम गली अति सांकरी भैया
ता में दो न समायें
तुम स्वयं और गोविंद के साथ गुरु को भी जमा किये हो//
आपने जो व्याख्या की है उसने वास्तविकता पर पड़ी नकाब उतार दी। बहुत सुन्दर!
आभार सहित आपके प्रयास को नमन!
माननीय Bloggers
sundar
Dr. Swaran J Omcawr जी शास्वत गंगा की खोज प्रभावपूर्ण आलेख बहुत पसंद आया, यह पवित्र गंगा में मल से अपवित्र
करने का कार्य, ऋषियों मुनियों के ज्ञान, धार्मिक साहित्य, वेदों, और भारतीय मनिहियों के अथक प्रयासों के बावजूद अविरल
हो रहा है | तो फिर अकेले प्रशासन या सरकार ही नहीं आम जनता भी दोषी है | और प्रभु ही जाने कब सद्बुद्धि आएगी | बधाई |
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