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चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें

चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें (1)

देश में बहती है जो गंगा वह है क्या?


वह पानी की धारा है या ज्ञान की?


भई दोनों ही तो बह रही हैं साथ साथ, शताब्दियों से!


आज इक्कीसवीं शताब्दि में लेकिन दृष्य कुछ और है.


इस महान् देश की दो महान् धारायें अब शाष्वत नहीं, शुद्ध  नहीं, मल रहित नहीं.


धारा में फंसा है ज्ञान या ज्ञान में फंस गई है धारा!


कौन जानें किस ने किस के बहाव को अवरूद्ध किया?


ज्ञान तो था मार्ग-दर्षक मानवीय चेतना का, मानवता की बुद्धि का.


प्रखर करता था चेतना को, बुद्धि को.


ज्ञान तो था केवल वाद और वाद थे महा-ज्ञान की महा-गंगा की महा धारायें,


संवाद के वाहक और विवादों से दूर.


अब ज्ञान तों ज्ञान की भ्रांति है मात्र!


ज्ञान का अवषे है केवल!


ढेरों के ढेर शब्द ज्ञान, विद्यालयों, महा-विद्यालयों, विष्व-विद्यालयों से बहता हुआ,


वादों संवादों को, चर्चायों को गोष्ठियों को झेलता हुआ,


मानवीय चेतना की निर्मल मंदाकिनी का रास्ता रोके बैठा है.


शाश्वत सत्य की विषुद्ध धारा को बांधे बैठा है!


मानवता की बुद्धि को भ्रमित किये हुए है, वह ज्ञान,


वह ज्ञान रौषनी नहीं चकाचैंध है केवल!


पतंगों की भीड़ है.


धन व ख्याति की लूट है.


गंगा क्या कहे?


इतने वाद जो इक्कट्ठे हो गये हैं


और इतने संवाद कि लाउड स्पीकर कम पड़ गये हैं.


स्टेजें पटी हैं व्याख्याकारों से पंडाल पटे हैं श्रोतायों से.


आदमी वहीं रूका हुआ है, आत्मा वहीं खड़ी है,


अंधेरा जितना अंदर है उतना ही बाहर!


गंगा की तो मूक वाणि है कौन सुन पायेगा?


वे सारे वाद जो पहले गंगा जी का सीना भेदेंगे.


वे सारे लोक के प्रलोक के व्याख्याकार!


वे परोक्ष अपरोक्ष ज्ञान के बांटने वाले!


वे सारे नीति के ज्ञानवान!


वे ज्ञान के नीतिज्ञ!


जो कोई ज़रा सा भी ज्ञानि हो जाता है-


बस सब से पहले अपना ज्ञान गंगा जी को दे डालता है

.
ज्ञान की विस्तृत गंगा में अपना ज्ञान जैसे फेंकने के अंदाज़ में कहता है-

‘हे गंगे! ... तुम तो ज्ञान की महासागर हो!


मैं अपना तुच्छ ज्ञान तुझे अर्पित कर रहा हूं.’


अब श्री गंगा मइया, बीच में सांस रोके,


बीमारों सा उच्चारण लिये रो पड़ती है-

‘अभी और कितना डालोगे और कितनी सदियों तक.


मेरे आर और मेरे पार बसने वाले मेरे बच्चों को


अब ज्ञान की नहीं ज्ञान से निकालने की ज़रुरत है...’

(शेष बाकी ....)

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 18, 2013 at 8:16pm
बढ़िया  बात कही आपने 

"ज्ञान की वास्तविकता व सार्थकता तभी  है जब वह रोजमर्रा के जीवन में आत्मसात हो कर क्रियान्वित होता है ..."

शायद इसी आशय को सामने रख कर मैंने यह सभ लिखा है 
मैं यह अछी  तरह से जानता हूँ कि  बहुत कम लोगों को पता है या इस का अहसास है कि  समझ व अनुभूति  अलग अलग हैं 
आप ने इस का बहुत कम व सुन्दर शब्दों में वर्णन  किया।
पर आप कह सकती हैं के मैं सवयं इस की ओर इशारा भर किया है  शब्द नहीं दे रहा, वर्णन नहीं कर रहा 
जीवन की तमाम विसंगतियों की तरह यह भी एक है  
आप के पधारने का शुक्रिया 
Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on March 18, 2013 at 6:46pm

विषय गंभीर है और शब्द कम, सच्चाई तो यह है कि आज ज्ञान ने शब्दों का रूप ले लिया है | चाहे शब्द  वाक् और विवाद के रूप ले कर  हों उपदेशक के रूप में, या श्रोता के रूप में, या धर्म में दिखावे के रूप में, जब तक यह ज्ञान शब्दों में चलेगा यह ज्ञान सिर्फ एक चोला होगा जिसकी आत्मा और शरीर नहीं, इसे मौन अपनाने वाला चाहिए आडम्बर नहीं| असली ज्ञान वही है और उसकी वास्तविकता सार्थकता वही हैजब वह रोजमर्रा के जीवन में आत्मसात हो कर क्रियान्वित होता है ... इसलिए ज्ञान पर मैं बोलना नहीं चाहूंगी .. बस चाहूंगी की इसे महसूस करे और जीवन में अपनाएँ ... पानी और ज्ञान की धारा गंगा के बारे में मैंने  इसका दूसरा अंक भी पढ़ा .. बहुत अच्छा लगा ....सादर 

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 17, 2013 at 8:36pm

धन्यवाद सौरभ पाण्डेय जी 

मुझे पर्सन्नता होगी आप के साथ समय शेयर करने पर

यह बात आप ने खूब कही कि 

यह भी उतना ही सत्य है कि आर्तनाद समीकरणॊं या शैलियों को संतुष्ट नहीं करता

मेरा मानना है कि  आर्तनाद गर आत्मा तक जा  पाए तो समीकरणॊं या शैलियों की बात बहुत साधारण रह जाती है 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 1:57am

संवेदनशील हृदय जब शाश्वत, सनातन और समर्थ इकाइयों को व्यथित, पीड़ित और उद्विग्न देखता है.. किसी उच्छिष्ट की तरह तो चीत्कार कर उठता है.  फिर, यह भी उतना ही सत्य है कि आर्तनाद समीकरणॊं या शैलियों को संतुष्ट नहीं करता. 

डॉक्टर स्वर्ण साहब, आपकी चिंता और उससे निपजी तथ्यात्मकता अनुमोदनीय है. ..

आपकी कोई पहली रचनादेख रहा हूँ.  मंच पर आपका सादर स्वागत है.

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 15, 2013 at 7:23pm

धन्यवाद  बृजेश नीरज  जी

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 15, 2013 at 7:22pm
Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 15, 2013 at 7:21pm

धन्यवाद  Laxman Prasad Ladiwala जी

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 15, 2013 at 7:20pm

धन्यवाद Yogi Saraswat ji

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 13, 2013 at 5:47pm

सब अतिथ blogers का स्वागत है 

आप के पर्संसात्मक comments  का धन्यवाद 
यह एक लम्बी काव्या कथा है 
कृपया बने रहें 
यदि रचना बोर करने लगे तो कह देना 
मैं दुसरे टॉपिक्स में शिफ्ट हो जाऊंगा 
Comment by Yogi Saraswat on March 13, 2013 at 2:36pm

इतने वाद जो इक्कट्ठे हो गये हैं


और इतने संवाद कि लाउड स्पीकर कम पड़ गये हैं.


स्टेजें पटी हैं व्याख्याकारों से पंडाल पटे हैं श्रोतायों से.


आदमी वहीं रूका हुआ है, आत्मा वहीं खड़ी है,


अंधेरा जितना अंदर है उतना ही बाहर!


गंगा की तो मूक वाणि है कौन सुन पायेगा?

पतित पावनी गंगा मैया पर यथार्थ और सुन्दर रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई!

कृपया ध्यान दे...

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