चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें में सब अतिथि blogers का स्वागत है. आप के पर्संसात्मक comments का धन्यवाद यह एक लम्बी काव्या कथा है कृपया बने रहें. कोशिश करूंगा आप को निराश न करूं. यदि रचना बोर करने लगे तो कह देना.
Dr. Swaran J. Omcawr
गंगा कहती रहीं- ज्ञानि सुनता रहा
‘तुम इतना ताम-झाम करते हो!
इतनी यातायात, इतनी संचार व्यवस्था!
इतनी मोटर गाडि़यां!
मेरे पानियों पर, मेरे किनारों तक
उन अनजान भक्तों को लाने के लिये!
ज़रा सोचो एक दिन में कितने!
एक साल में कितने!
और कितनी सदियों तक!
उफ कितना परिश्रम करते हो
केवल एक सरल सी शिक्षा
‘कि तुम परम आत्मा के अंश हो’
जो न जाने कितनी बार दोहराई गई है
इतने मानव इतना मानव मल
मेरे बच्चे! केवल मानव मल की बात नहीं कर रही, उसे मैं ढो लूंगी.
वे तन का मैल फेकें या मन का,
इसकी भी परवाह नहीं!
पर इतना यातायात! इतना ताम-झाम!
इतनी प्लास्टिक!
इतने दिये! इतनी बातियां!
इतने फ़ल-फूल पूजा समग्री!
हस्तनिर्मित देवी देवों की प्रतिमायें!
जिन्हें मैं बार बार किनारों पर फेंकती हूं
इन सब से मैं मानती हूं कि रूठती हंू!
मैं रूठी हूं यह बताने के लिये क्या बाढ़ लाउं?
कोई पूछता है?
फिर इतने लोगों की इतनी गाडि़यां!
उन सब के कल-पुर्जा गृह, वे सारे कारख़ाने!
सौंदर्य-प्रसाध्नों की,
जूतों की चप्पलों की बड़ी बड़ी फैक्टरियां!
उन से निकलता रासायणक ज़हर!
जाता है मेरे पानियों में
तो क्या हाल होता है मुझ में बसे मेरे प्राणियों का?
भारत भर में ही नहीं,
विष्व भर में मैं मरते प्राणि की प्यास बुझाती हूं!
पर मैं स्वयं प्राणि की मृत्यु का कारण बनूं!
मुझ आभागिन को क्यों पापों की भागिन बनाते हो?
गंगा की मूक वाणि ज्ञानी सुनता रहा.
उस के कानों में रस नहीं पिघला सीसा डल रहा था शायद!
जो दे रहा था उसे असहनीय दर्द!
गंगा कहती रहीं-
(शेष बाकी ....)
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
गंगा की व्यथा को गंगा से सुनना..
हम जब तक तथाकथित ’अशिक्षित’ और ’असभ्य’ थे, ’पुरातनपंथी’ थे, गंगा हमारी माँ थी. गंगा सदा गर्भधारिणी रही. असंख्य जन्मा रही. हमारी तथाकथित शिक्षा ने हमें ज्ञानवान क्या बनाया हमारी सांस्कृतिक माँ निरा नदी भर रह गयी. ऐसी इकाई जो बहते पानी से भरी होती है और हमारे उच्छिष्ठ को प्रवाहित कर सकती है.
यहीं से हमारा और हमारी सांस्कृतिक माँ से मानसिक विभेद प्रारंभ हुआ. कल की चिरगर्भिणी आज ऐसी है कि अपने पुत्रों से तर जाने तक की अपेक्षा से बाहर हो गयी है.
गंगा व्यथा-कथा के लिए साधुवाद. ..
धन्यवाद केवल पर्साद जी
धन्यवाद लाडिवाला जी
Thanks Coontee Mukherji
aap ne kavita ko saraha yeh mere liye badi baat hai
fourth part of the series is ready please do visit.
Swaran
Dr Swaran ji kash ap jaise mane sabka ho, sab koi Ganga ki pukar sunein.pata nahi log apna mail dhokar kaisa poonya ki asha karte hai.itne hriday grahee kavita ke liye apko dhaniavad.
"विष्व भर में मैं मरते प्राणि की प्यास बुझाती हूं!
पर मैं स्वयं प्राणि की मृत्यु का कारण बनूं! मुझ आभागिन को क्यों पापों की भागिन बनाते हो?"
गंगा नहीं पाप के भागीं तो वे मनुज ही होंगे जो मन से और तन से गंगा को प्रदूषित कर रहे है | वे सब भारत की
संस्कृति विरासत को भी समूल नष्ट कर रहे है | अब ऐसे ग्यानी ध्यानी विद्वजन जो गंगा की मूक आवाज सुन
ह्रदय परिवर्तन करे, को शासन प्रशासन की बागडौर दिलाने का कार्य जनता को करना होगा | ऐसे आलेख के लिए
हार्दिक बधाई डॉ स्वर्ण जे ओमकंवर जी
आदरणीय डॉ स्वर्ण जे ओम्कार जी, हार्दिक आभार ! मैं आपके 'शाश्वत गंगा की खोज' में किस तरह काम आ सकता हॅू, आदेश करें! धन्यवाद सहित!
धन्यवाद Mohan Begowal ji
पर्दूषण दोनों में है गंगा में भी और ज्ञान में भी
डाक्टर साहिब,
आप जी ने बहुत ही अच्छे तरीके से मन व पर्यवरण के दूषित होने की बात को उठाया है, और इस के होने के कारणों की तरफ भी इशारा किया ,आप का धन्यवाद
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