हम तो कहीँ और नहीँ गये हैं बच्चोँ,
अभी भी मौज़ूद हैं ह्म तुम्हारे अंदर ।
ज़ुल्म को देखकर भी चुपचाप कैसे बैठे हो,
क्या धधकता नहीं है ज्वाला तुम्हरे अंदर । ।
हर इक शय में सियासत भरी हुई है यहाँ,
नये भारत की बाताओ तुम है तस्वीर कहाँ ।
हर तरफ शाख पर उल्लू दिखायी देते हैं,
हाथ में उस्तरा लिए बंदर दिखायी देते हैं । ।
माँ को माँ कहने से गुरेज़ करता है बशर,
देख तमाशा ये क्यूँ कौंध नहीं जाती है नज़र ।
बारहा मुल्क़ से जो गद्दारी किये जाता है,
और वही शख्स फिर संसद में चुना जाता है । ।
जब तिरंगे को घाटी में जलाया जाता हो,
और पड़ोसी को अपना बाप बताया जाता हो ।
वंदे मातरम पर जब बवाल किया जाता हो,
और सेना के शौर्य पर सवाल किया जाता हो । ।
ऐसे हैवानों को क्यूँ गोली नहीं मारी जाती,
मारोँ पापियों को वो फिर ज़फर हो या बग़दादी ।
भूत लातों के हैँ ये तुम जमकर के भाँजो लाठी,
चैन से सोएगी फिर निश्चित ही कश्मीरी घाटी । ।
काँटेँ को काँटेँ से निकालना श्रेयस्कर होगा,
खुराफातियोँ को हमारा अब क्रोध झेलना होगा ।
अहिंसा परमो धर्म माना मगर कायर ना बने,
हम हैं वंशज राणा के और विरंगनाओँ के जने । ।
हमको जो करना था कब के कर चुके बच्चों,
झूल गये हंसते हुए फांसी पे इसलिए बच्चोँ ।
मिली नहीं है बस स्वतंत्रा हमें यूँ ही बच्चोँ,
नदी लहू की बही अनगिनत समझो बच्चोँ। ।
-प्रदीप देवीशारण भट्ट-
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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