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ग़मों की दिन-ब-दिन क़िस्मत सँवरती जा रही है
उदासी इस क़दर मुझमें उतरती जा रही है
अभी तो वक़्त है पतझर के आने में,हवा क्यों
चली ऐसी कि मन वीरान करती जा रही है
बहारों ने चमन लूटा मगर बाद-ए-सबा ये
खिज़ाओं पे हरिक इलज़ाम धरती जा रही है
Comment
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन । उत्तम गजल हुई है । हार्दिक बधाई । शेष संवरती को सँवरती कर लिजिएगा।
आद0 बृजेश जी सादर अभिवादन। अच्छी ग़ज़ल कही है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
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