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इस दुनिया के निर्माता ने, सृष्टि के भाग्य विधाता ने.

मारुति-कृशानु के संगम से, भूमि -वारि और गगन से.

                 एक पुतला का निर्माण किया.

         मानव का नाम उचार दिया.

मांस -चर्म के इस तन में,नर -नारी के सुन्दर मन में.

एक समता का संचार किया, तन लाल रुधिर का धार दिया .

                  सबको समान दी सूर्य -सोम.

                सबको समान दी भूमि -ब्योम.

सबको चमड़े की काया दी. सबको  सृष्टि की छाया दी.

हितार्थ मनुज के ही अनेक, सामान बनाया है विशेष.

                  सर -सरिता,भूधर -कानन दी.

                  दिन -रात, प्रभंजन पावन दी .

किन्तु! मनुष्य  ने अपने को, सृष्टिकर्ता के सपने को.

खण्डों -खण्डों में बाँट दिया, स्वार्थ से रिश्ता काट दिया.

                    जाति-पांति का भेद किया.

                   मानवता को ही बेध दिया.

जैसे फूलों की क्यारी है, नभ में तारों की धारी है.

जो देखन में हैं भांति-भांति,पर हैं तो सब ही एक जाति.

         वे आपस में नहीं लड़ते हैं.

         तू -तू, मैं -मैं नहीं करते हैं.

पर मनुज बंट गया वर्गों में, स्वार्थ के रंचक सर्गों में.

हो मनुज मनुज से दूर हुआ, मद के ज्वाला में चूर हुआ.

          मिथ्या विपत्ति को मोल लिया.

          नफ़रत से हसरत तौल लिया.

गीता -कूरान के झगड़े में,हिन्दू -इस्लाम के रगड़े में.

गुरु ग्रन्थ -बाईबल को लेकर, और सिक्ख -ईसाई को लेकर.

        मज़हब को आड़े ला करके.

        भाषा की बात उठा करके.

मानव विपत्ति से हाथ मिला, पतन -राह पर बढ़ा चला.

यदि अब भी पग नहीं रोकेंगे , तो पतन -कूप में सोचेंगे.

           हमने अपना सर्वनाश किया.

           मिथ्या शक्ति का ह्रास किया.

धर्म नहीं अलगाव सिखाता,भाषा नहीं कहता लड़ने को.

भाषा -धर्म राह मात्र है, मंजिल तक जाने को.

तमपूर्ण वर्ग -भवन से निकलो,बाहर खड़ा  सबेरा है

प्रिय, तुम्हारे कर कमलों में,मानसरोवर मेरा है.

                        गीतकार -सतीश मापतपुरी

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Comment by satish mapatpuri on July 17, 2011 at 7:08pm

शारदा मोंगा जी,आशीष जी,शन्नो जी,गणेश जी,वेद जी और प्रवीण जी - हौसला अफजाई के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद.

Comment by आशीष यादव on July 13, 2011 at 5:38am
बहुत सुन्दर रचना है। शब्दोँ की व्यवस्था, शब्दोँ का चुनाव बहुत सुन्दर ढँग से किया गया है। भेद-भाव को दूर करने का सन्देश दे रही ये रचना हर तरह से उत्तम है। आपकी कलम को सलाम
Comment by Shanno Aggarwal on July 12, 2011 at 10:35pm

सतीश जी,  

सही कहा कि ईश्वर बिना भेद किये इस सृष्टि की रचना करता है किन्तु मानव ही अपने को बाँट लेता है तरह-तरह से.

मानवता का संदेश जन-जन तक पहुँचाने वाली आपकी ये रचना बहुत ही उतकृष्ट है. बधाई है ऐसे लेखन पर.  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 12, 2011 at 9:38pm

धर्म नहीं अलगाव सिखाता,भाषा नहीं कहता लड़ने को.

भाषा -धर्म राह मात्र है, मंजिल तक जाने को.

तमपूर्ण वर्ग -भवन से निकलो,बाहर खड़ा  अन्धेरा है.

प्रिय, तुम्हारे कर कमलों में,मानसरोवर मेरा है.

 

सतीश भईया, इस रचना की जितना भी तारीफ़ किया जाय वो कम ही है , एक एक शब्द जिस नगीने की तरह जड़ा है कि रचना किसी खुबसूरत हार कि माफिक लगती है , बहुत बहुत बधाई भाई साहब |

माँ शारदा कि कृपा से आपकी लेखनी ऐसे ही चलती रहे |

Comment by PRAVIN KUMAR DUBEY on July 12, 2011 at 8:50pm
Satish jee Aapka MANSAROVAR sampradaik sauhard bigadne walon ke muh par karara tamacha hai.
Comment by satish mapatpuri on July 12, 2011 at 5:05pm
बहुत -बहुत धन्यवाद
Comment by Rash Bihari Ravi on July 12, 2011 at 1:50pm

मांस -चर्म के इस तन में,नर -नारी के सुन्दर मन में.

एक समता का संचार किया, तन लाल रुधिर का धार दिया .

                  सबको समान दी सूर्य -सोम.

                सबको समान दी भूमि -ब्योम.

bahut badhiaa sir ji

Comment by satish mapatpuri on July 12, 2011 at 11:21am
बहुत -बहुत धन्यवाद नीलम जी  
Comment by Neelam Upadhyaya on July 12, 2011 at 11:03am
"धर्म नहीं अलगाव सिखाता,भाषा नहीं कहता लड़ने को.

भाषा -धर्म राह मात्र है, मंजिल तक जाने को.

तमपूर्ण वर्ग -भवन से निकलो,बाहर खड़ा अन्धेरा है.

प्रिय, तुम्हारे कर कमलों में,मानसरोवर मेरा है."


बहुत ही सुन्दर रचना है - भावपूर्ण और अर्थपूर्ण । बधाई स्वीकार करें

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