१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
बजेगा भोर का इक दिन गजर आहिस्ता आहिस्ता
सियासत ये भी बदलेगी मगर आहिस्ता आहिस्ता/१
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सघन बादल शिखर ऊँचे इन्हें घेरे हुए हैं पर
उगेगी घाटियों में भी सहर आहिस्ता आहिस्ता/२
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हमें लगता है हर मन में अगन जलने लगी है अब
तपिस आने लगी है जो इधर आहिस्ता आहिस्ता/३
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हमीं कम हौसले वाले पड़े हैं घाटियों में यूँ
चढ़े दिव्यांग वाले भी शिखर आहिस्ता आहिस्ता/४
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अभी दुत्कारते हो पर समझ तब मोल पाओगे
किनारा जब करेगा ये सिफर आहिस्ता आहिस्ता/५
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न दुहरा बोझ करके हो पड़ी जो बोरियाँ दुख की
उन्हें मूसक के जैसा तू कतर आहिस्ता आहिस्ता/६
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न अब वो लौटने वाला बहा मत आँख से आँसू
किया मजबूत हमने भी जिगर आहिस्ता आहिस्ता/७
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न लौटे जाने वाले जब नगर की ओर तज इसको
हुआ है गाँव अपना भी नगर आहिस्ता आहिस्ता/८
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न समझो मान है चुप्पी दरीचे उठ नहीं सकते
खुलेंगे पीठ पीछे सब अधर आहिस्ता आहिस्ता/९
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भले ही नून कंकड़ शूल पथ में आपने ने डाले
'मुसाफिर' तय करेगा ये सफर आहिस्ता आहिस्ता/१०
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए धन्यवाद।
वाह वाह आदरणीय धामी जी बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल कही....बधाई
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर आपकी उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार । टंकण त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'तपिस आने लगी है जो इधर आहिस्ता आहिस्ता'
इस मिसरे में 'तपिस' को "तपिश" लिखना उचित होगा ।
आ. भाई श्यामनारायण जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद.
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद.
हार्दिक बधाई आदरणीय मुसाफ़िर जी। लाजवाब ग़ज़ल।
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