२१२२/२१२२/२१२२/२१२
मन था सुन्दर तो वदन की हर कमी अच्छी लगी
उस के अधरों ने कही जो शायरी अच्छी लगी/१
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सात जन्मों के लिए वो बन्धनों में बँध गये
जिन्दगी के बाद जिनको जिन्दगी अच्छी लगी/२
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आँख चुँधियाती रही जो पास में अपनी सनम
दूर तम में बैठकर वो रोशनी अच्छी लगी/३
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एक हम ही भागते रंगीनियों से दूर नित
और किसको बोलिए तो सादगी अच्छी लगी/४
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हाथ में था हाथ उनका दूर तक कोई न था
फिर से बारिश यूँ हमें बेमौसमी अच्छी लगी/५
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एक सच आँखों में था जो वो नहीं उनको रुचा
आवरण में झूठ के हर बतकही अच्छी लगी/६
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मन उबा अपना भी साथी जब नगर के शोर से
झील के तट फिर अकेले चाँदनी अच्छी लगी/७
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लोग चर्चा रोज करते दोस्ती की उन से पर
हमको फूलों से हुई जो दुश्मनी अच्छी लगी/८
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मौलिक/ अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
बढ़िया कहा आदरणीय धामी जी...बधाई
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
त्रुटिपूर्ण मिसरे को इस प्रकार देखिएगा सादर-
आँख चुँधियाती रही जो पास था जब तक सनम
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'उस के अधरों ने कही जो शायरी अच्छी लगी'
इस मिसरे में 'शायरी' को "शाइरी" लिखना उचित होगा ।
'आँख चुँधियाती रही जो पास में अपनी सनम'
इस मिसरे में 'पास' शब्द के साथ 'में' का प्रयोग उचित नहीं होता,देखियेगा ।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
हार्दिक बधाई आदरणीय मुसाफ़िर जी।बेहतरीन ग़ज़ल।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
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