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किसी की बेरुख़ी है या सनम हालात का दुख
परेशां हूँ हुआ है अब तुझे किस बात का दुख
तुम्हें तो पड़ गई हैं आदतें सी रतजगों की
तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता बढ़ रहा जो रात का दुख
जमाती सर्दियाँ, फुटपाथ का घर, पेट ख़ाली
उन्हें सोने नहीं देता कई हालात का दुख
भिंगोते रात का आँचल बशर अपने ग़मों से
सवेरे फिर बरसता ओस बनकर रात का दुख
वो सारी ज़िन्दगी अपने लहू से सींचता 'ब्रज'
समझती क्यों नहीं संतान कोई, तात का दुख
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय मनोज जी...सादर
सुंदर ग़ज़ल हुई है आदरणीय
आदरणीय समर साहब की इस्लाह से बहुत कुछ साफ हो ही गया है
हार्दिक बधाई
सादर
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन।सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय समर कबीर जी ग़ज़ल पे आपकी उपस्थित हमेशा प्रेरणादायी है...हाँ आदरणीय दुःख शब्द पे कुछ दिन पहले शायद आदरणीय नीलेश जी की ग़ज़ल पे चर्चा हुई थी...ध्यान में क्लियर नहीं था...इसलिए प्रयुक्त किया...अभी बदल दूँगा।
मसलात मसअला का बहुवचन ही लिया है..सुना हुआ लगता है इसलिए लेकिन आपने बताया तो कुछ सुधार करता हूँ...बाकी सभी सुधार भी करता हुँ आपके निर्देशानुसार।सादर
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'दुःख' शब्द विसर्ग के साथ लिखेंगे तो इसकी मात्रा 3 होगी,इसे 2 पर लेना है तो "दुख" लिखें ।
'किसी की बेरुख़ी है या तेरे हालात का दुःख'
इस मिसरे में 'तेरे' शब्द की जगह "सनम" शब्द उचित होगा,ग़ौर करें ।
'तुम्हें तो पड़ गईं हैं आदतें सीं रतजगों की'
इस मिसरे में 'गईं' को "गई" और 'सीं' को "सी" कर लें ।
'उन्हें सोने नहीं देता इन्हीं मसलात का दुःख'
इस मिसरे में 'मसलात' शब्द शायद आपने 'मसअला' शब्द के बहुवचन के तौर पर लिया है, अगर ऐसा है तो ये ग़लत शब्द है 'मसअला' शब्द का बहुवचन "मसाइल" या "मसअले" होता है ।
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