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जितनी क़िस्मत में थी लिखी रोटी
सबको उतनी ही मिल सकी रोटी
मुफ़्लिसी, भूख, दर्द, दुख, आंसू
हां, बहुत कुछ है बोलती रोटी
याद परदेस में भी आती है
मां के हाथों की वो बनी रोटी
ज़ाइक़ा कुछ अलग ही है इनका
वो नमक-मिर्च, वो दही-रोटी
रो रहा है सड़क पे इक बच्चा-
'दो दिनों से नहीं मिली रोटी'
कीं बहुत 'ज़ैफ़' कोशिशें हमने
बन न पाई वो गोल-सी रोटी
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आ. सौरभ सर, बहुत शुक्रिया आपका। सादर।
कीं बहुत 'ज़ैफ़' कोशिशें हमने
बन न पाई वो गोल-सी रोटी..
बहुत कमाल का शेर बन पड़ा है, भाई जैफ जी.
प्रयासरत रहें और प्रयास करें, रदीफ कुछ नया-सा हो जिससे कहन को नये आयाम मिल सकें.
शुभ-शुभ
आ. लक्ष्मण जी, बहुत शुक्रिया। सादर।
आ. भाई जैफ जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
रचना मैम, बहुत शुक्रिया आपका।
वाह वाह बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई बधाई।
बहुत शुक्रिया समर सर जी, आभार।
जनाब ज़ैफ़ जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
हां--'हाँ'
मां--'माँ'
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