ग़ज़ल - ग़मों का दौर हूँ मैं
ग़मों का दौर हूँ मैं ,
ग़ज़ल है और हूँ मैं |
दशहरी गंध तुम हो ,
तुम्हारी बौर हूँ मैं |
तेरा हर तिल गिना है ,
नज़र का गौर हूँ मैं |
हो तुम सपनीली आँखें ,
उनींदी ठौर हूँ मैं |
मुझे सबने सहेजा ,
हाँ अंतिम कौर हूँ मैं |
सज़ा बाज़ार में हूँ ,
मगर सिरमौर हूँ मैं |
{अभिनव अरुण - मेरा लेखकीय नाम }
Comment
इस ग़ज़ल के लिये बधाई..
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह.. सही है.
मुझे सबने सहेजा ,
हाँ अंतिम कौर हूँ मैं |
बहुत ही खुबसूरत ख्यालात अभिनव अरुण जी, अच्छी ग़ज़ल कही है आपने, दशहरी गंध वाला शेर भी बहुत प्यारा है, बधाई कुबूल करे |
और हां.....आपने कहा कि...
बहुत कुछ नेट प्रेक्टिस के रूप में भी लिखा - कहा जाता है .. मेरा तो ये कहना है कि हर बड़े शायर का भी हर एक शेर बाकमाल नहीं होता !! फिर यह कोई एक्सक्यूज नहीं बाज़ार में हूँ ...
इसका मतलब बहुत प्रयास के बाद भी नहीं निकाल सका :-)
kuchh bhi ho lekin ye ghazal waakai kamaal ki hai.
isme upasthit she'r swayam me purn hai.
दशहरी गंध तुम हो ,
तुम्हारी बौर हूँ मैं |
ye upma ki kya kahne.
wakai lajwaab hai.
bahut-bahut badhai.
बहुत कुछ नेट प्रेक्टिस के रूप में भी लिखा - कहा जाता है .. मेरा तो ये कहना है कि हर बड़े शायर का भी हर एक शेर बाकमाल नहीं होता !! फिर यह कोई एक्सक्यूज नहीं बाज़ार में हूँ ...
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