मैं कौन हूँ ?
ये ही पूछा हैं न ?
ये मेरी ही दस्तक है
जो फैलाती हैं सुगंध
बनती है मकरंद.
जो काफी है
भौरों को मतवाला बनाने को
और कर देती है लाचार
बंद होने को पंखुड़ियों में ही
तुम नहीं देख पाए मुझको
उन परवानों के दीवानेपन में
जो झोंक देते हैं प्राण शमा पर
क्या मैं नहीं होता हूँ
उन ओस की बूंदों में
जो गुदगुदाती हैं
प्रेमियों को
रिमझिम फुहार में
बस जाती हैं
धड़कते दिलों
के द्वार में .
महसूस करो मुझे कभी
कोयल की कूक में
पपीहे की हूक में
कांपते होठों की प्यास में
राह तकती आँखों की आस में
पहचानो मुझे
मैं वो हूँ जो
कभी निकल पड़ता हूँ
जेठ की दुपहरी में भी
मंजिल को पाने को
खुद को मिटाने को
जला नहीं पाती
आग भी तब मुझको
मैं अक्सर दिखाई देता हूँ
हाथों में हाथ लिये
उनके जो रहते हैं मेरे
धडकते सीने में
कभी मैं मजनूं बन कर
हो जाता हूँ कुर्बान
लैला के साथ
ले कर
हाथों में हाथ.
कभी झूल जाता हूँ
सूली पर
येशु बन कर
तो कभी
बजाता हूँ बांसुरी
कान्हा बन कर .
मैं कौन हूँ ?
ये तुम तब ही जान पाओगे
जब करोगे आत्ममंथन
तब सुन पाओगे मेरा क्रंदन
जो तुमनें मुझे दिया है
क्यों बाँध दिया है मुझे
अपनी ही कायरता से
मत पूछो मैं कौन हूँ
मैं तुम्हारा
सच ...
रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा
Comment
bahut hi shandaar rachna
सभी सम्माननीय पाठकों को मेरा हार्दिक नमन . इस रचना को आपनें सराहा है उससे मेरा हौसला बढ़ा है. हृदय से आभार . संपादक मंडल को मेरा धन्यवाद.
bahut sundar rachna
Badhai ho
aapko haardik badhaai.
महसूस करो मुझे कभी
कोयल की कूक में
पपीहे की हूक में
कांपते होठों की प्यास में
राह तकती आँखों की आस में
पहचानो मुझे
मैं वो हूँ जो
कभी निकल पड़ता हूँ
जेठ की दुपहरी में भी
मंजिल को पाने को
खुद को मिटाने को.....भावपूर्ण ...डा. अजय जी को मेरी हार्दिक बधाइयाँ..........
मत पूछो मैं कौन हूँ
मैं तुम्हारा
सच ...........सच ...
इस अतिविशिष्ट रचना पर आने से रह गया था. रचना पूरे विस्तार को एक इकाई देती है. व्यापक सोच और सुगढ़ वैचारिकता को प्रस्तुत करती इस रचना के लिये डा. अजय जी को मेरी हार्दिक बधाइयाँ.
bahut sundar bhaavpoorn rachna.
मत पूछो मैं कौन हूँ
मैं तुम्हारा
सच .. khoob~
भावपूर्ण रचना |महसूस करो मुझे ....बहुत सुन्दर .
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