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मन का चन्दन महक उठता है

तन कस्तूरी लगता है

दिल से दिल मिले यदि तो

सारा जग अपना लगता है

 

तुम्हें देख कानन तरूवर

विहँसने का उपक्रम करते

क्यों शाख पे लिपटी लताएं

क्यों पवन मंद मंद बहते

 

मरूस्थल में भी फूल खिलाना

तुमको ही क्यों आते हैं

झरने कैसे इठलाते हैं

पंछी क्यों सुर में गाते हैं

 

दसों दिशाओं से सुरभित

मानव मन की कस्तूरी

मन से मन यदि मिला रहे

तो कहाँ किसी से यह दूरी

 

जीवन का व्यापार यही है

जग की सारी प्रणय कहानी

तुममें ही सब छिपा हुआ है

सकल जगत ने यह जानी

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Comment by MAHIMA SHREE on March 19, 2012 at 10:36am
मरूस्थल में भी फूल खिलाना
तुमको ही क्यों आते हैं
झरने कैसे इठलाते हैं
पंछी क्यों सुर में गाते हैंआदरणीय राजीव सर ,
सादर नमस्कार,
क्या सुंदर अभिव्यक्ति है....... चित प्रसन्न हो गया...बहुत-२ बधाई आपको
Comment by Dr. Shashibhushan on March 18, 2012 at 10:11pm

आदरणीय झा जी,
सादर !
रचना तो भावपूर्ण है ही, चित्र भी बहुत सुन्दर
लगा है ! बधाई !

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 2:25pm

धन्यवाद ! आदरणीय प्रदीप जी.आप सबों के सानिंध्य में बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है.

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 2:24pm

धन्यवाद ! संदीप जी.सराहना के लिए आभार.

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 2:23pm

धन्यवाद ! प्रिय आनंद जी.सराहना के लिए आभार.

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 2:19pm

धन्यवाद ! प्रवीण जी. सराहना के लिए आभार.

Comment by praveen singh "sagar" on March 18, 2012 at 11:33am

bahut hi behtarin aur umda prastuti, aabhaar vyakt karta hu.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 17, 2012 at 12:30pm

आदरणीय राजीव जी,

मनोहारी प्रस्तुति। दसो दिशाओं से सुरभित ... बहुत सुंदर.. वाह..!!

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 17, 2012 at 10:25am

दसों दिशाओं से सुरभित

मानव मन की कस्तूरी

मन से मन यदि मिला रहे

तो कहाँ किसी से यह दूरी

aadarniya mahoday, saadar abhivadan . 

chitr koot ke ghat pe bhai santan ki bhiir. tulsidas chandan ghisen tilak det raghuvir. 

bahut sundar bhav evam prastuti. badhai.

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