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बचपन बीता खेलों में 
माँ के सुन्दर सुन्दर गीतों में 
मन मयूर  मचलता फिरता  गलियन में 
भौंरा बन मंडराता छुप जाता  कलियन में 
गावों की नागिन सी  पग डंडियाँ 
बलखाती जा मिली जब हसीं शहरों से 
प्रेम रंग में डूब गया जा टकराया लहरों से 
कुछ मीत यहाँ कुछ मीत वहां 
कुछ साथ रहे  कुछ बिछड  गए 
हमने देखा  उसने पहचाना 
वादा था जीवन साथ निभाना 
वादे करते वो आईने से 
हाथ लगे और टूट गए 
खट्टी मीठी यादों के सुर 
पैरों में जैसे बंधे नुपुर 
लय ताल न रही बिखर गए 
जीवन के नित रंग नए -नए 
डूबा न गम के अंधेरों में 
प्रेम की फितरत पहचानी 
सुने थे किस्से हीर मजनू के 
मिली न वो हुई अनजानी 
ये प्रेम पुष्प जो खिलता  है 
सच्चे ह्रदय से निकलता है 
सच्चा है  केवल माँ का  प्रेम 
काहे दूजे की दुनिया दीवानी 
करलो न अपने देश से प्रेम 
तुम बन जाओ एक सेनानी. 

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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 19, 2012 at 12:22pm

आदरणीय प्रदीप जी,

सादर! वास्तविक प्रेम दो ही हो सकते हैं या तो माँ का या फिर देश का क्यूंकि दोनों ही निःस्वार्थ होते हैं| सुंदर प्रस्तुति पर बधाई!

Comment by अश्विनी कुमार on March 19, 2012 at 11:21am

स्नेही प्रदीप जी सादर अभिवादन ,,,अति सुंदर भावपूर्ण मुक्तक ....... जय भारत

Comment by MAHIMA SHREE on March 19, 2012 at 10:40am
आदरणीय सर
सादर प्रणाम
बहुत ही प्यारी ...प्रस्तुति...बहुत ही सुंदर ....ढेर सारी बधाइयाँ आपको...
....
Comment by Dr. Shashibhushan on March 18, 2012 at 11:23pm

आदरणीय प्रदीप जी,
सादर !
आपकी रचना पढ़कर भोला बचपन, आतुर किशोरावस्था और
अल्हड यौवन के प्रारम्भिक दिनों की याद आ गई !
बहुत सुन्दर भावनाएं ! हार्दिक बधाई !

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 11:18pm

बहुत सुन्दर,आदरणीय प्रदीप जी.बचपन की खट्टी-मीठी यादें  ताउम्र साथ रहती हैं.

हरित आँचल में धरा के

दौड़ना,गिरना,मचलना

व्योम की छाया तले

जीवन्तता से विहंस उठाना

आह! बंधन मुक्त जीवन की

कहानी मुस्कुरायी

बालपन की वह अनूठी

मधुर स्मृति लौट आयी.

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