माँ तुम्हारी वंदना में गुन गुनाना चाहते हैं .
आरती के दीप नूतन फिर सजाना चाहते हैं.
छल छलाती जाह्नवी अमृत परसने फिर लगे.
मोक्ष की अवधारणा का सच बताना चाहते हैं.
जल नहीं अमृत समझकर पान नित करते रहें.
फिर वही पावन धरोहर हम बनाना चाहते हैं.
तट तुम्हारे तीर्थ पावन क्यों बदल इतने गए.
फिर वही गौरव पुराना हम दिलाना चाहते हैं.
धन्य उद्गम धाम गोमुख धन्य हिम मंडित शिलाएं.
आस्था के बीज नूतन फिर उगाना चाहते हैं.
कामना है तप नया कोई भागीरथ कर सकें.
आज जनजन को यही अनुभव कराना चाहते हैं.
Comment
आदरणीय दया शंकर जी आपको यहाँ देख कर अच्छा लगा
ग़ज़ल की सुन्दर कहन और शिल्पगत कसाव ने मुग्ध कर दिया
ह्रदय तल से बधाई स्वीकारें
तट तुम्हारे तीर्थ पावन क्यों बदल इतने गए.
फिर वही गौरव पुराना हम दिलाना चाहते हैं.....सुन्दर आह्वान दयाशंकर पाण्डेय जी
जल नहीं अमृत समझकर पान नित करते रहें.
फिर वही पावन धरोहर हम बनाना चाहते हैं.
आदरणीय भावना को शब्दों में क्रमबद्ध कर की गयी सुन्दर कामना. बधाई.
तट तुम्हारे तीर्थ पावन क्यों बदल इतने गए.
फिर वही गौरव पुराना हम दिलाना चाहते हैं.
धन्य उद्गम धाम गोमुख धन्य हिम मंडित शिलाएं.
आस्था के बीज नूतन फिर उगाना चाहते हैं.
कामना है तप नया कोई भागीरथ कर सकें.
आज जनजन को यही अनुभव कराना चाहते हैं.
बहुत सुन्दर आह्वान और कामना ..माँ गंगे सदा अमृतजल से जीवन देती रहें ..आओ इन्हें बचाएं
आदरणीय दयाशंकर पाण्डेय जी आपका इस मंच पर होना हमारे लिए गौरव की बात है| एक सुन्दर कामना के साथ लिखी गई यह रचना अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने में पूरी तरह से सक्षम रही है|
ढेर सारी बधाइयां कबूल करें|
सादर
परमादरणीय दयाशंकरजी, आपको इलाहाबाद के मंच और गोष्ठियों में जब साक्षात् काव्य पाठ करते सुना तो मैं सही कहिये रोमांचित हो गया था. सनातनी और पौराणिक बिम्बों को आप स्वर दे कर वर्त्तमान पीढ़ी के लिये बहुत कुछ दे रहे हैं.
ग़ज़ल की बह्र को जिस संयत और विशिष्ट ढंग से आपने निभाया है तथा जिन भावों को आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल संप्रेषित करती है वह अपने आप पर आश्वस्ति के भाव जगाना सिखाती है.
आपकी सादर उपस्थिति मंच के लिये प्रभा है.
सादर
तट तुम्हारे तीर्थ पावन क्यों बदल इतने गए.
फिर वही गौरव पुराना हम दिलाना चाहते हैं.
bahut sundar bhav, badhai mahoday.
कामना है तप नया कोई भागीरथ कर सकें.
आज जनजन को यही अनुभव कराना चाहते हैं.
आदरणीय दया शंकर पाण्डेय जी , खुबसूरत ख्याल के साथ अच्छी ग़ज़ल आपने कही है, दाद कुबूल करें |
तट तुम्हारे तीर्थ पावन क्यों बदल इतने गए.
फिर वही गौरव पुराना हम दिलाना चाहते हैं.
दया शंकर पाण्डेय जी जल प्रदूषण को इंगित करती आपकी यह अप्रतिम रचना बहुत भाई वो पहले जैसे पावन नदी तट और स्वच्छ जल अब कहाँ ....बहुत सुन्दर भाव
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