पौधा था छोटा था
लगता था अब गया तब गया
कभी बारिश की बुँदे
सुहानी लगती थी
कभी लगता डूब गया डूब गया,
हिम्मत करके टहनियां बढ़ाई,
नयी कोपलें बिखराई,
अब गगनचुम्बी वृक्षों को
छूने लगी टहनियां,
लगा मै भी खडा हो गया खडा हो गया,
मगर पुष्पों के खिलने तक
अहसास नहीं हो पाया बड़ा होने का,
फलों से लदते ही लगा
मै बड़ा हो गया बड़ा हो गया,
मै भूल गया
वो छुटपन का अहसास
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.
Comment
महिमा जी
सादर, आपको रचना पसंद आयी, मेरे लिए प्रोत्साहन है. धन्यवाद.
जवाहर जी भाई नमस्कार,
काव्य रचना को सराहने के लिए धन्यवाद. आपने वृक्ष के स्वभाव का एक और उदाहरण पेश किया है.
भाई जी उज्जैन तो धार्मिक नगरी है आप आयें तो प्रसाद तो जरूर ही पायेगें.स्नेह बनाए रखें.धन्यवाद.
आदरणीय प्रदीप जी
नमस्कार, आपने मेरी काव्य रचना को और विस्तार दिया आभार. हम भी वृक्ष हो सकते हैं यदि और और पाने की लालसा छोड़ दें, हमारी छाँव में बैठे व्यक्ति को एहसास दिलाना छोड़ दें.धन्यवाद.
आदरणीय निलेश जी, राजेश जी,डॉ. बाली जी आप सभी का आभार आपने रचना के भावों को समझने एवं सराहने के लिए. धन्यवाद.
वो छुटपन का अहसास
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.
आदरणीय अशोक सर , बहुत-२ बधाई ,
बहुत ही सुंदर अभिवयक्ति
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.
वृक्ष का एक और धर्म है वो शायद रह गया
आदरणीय अशोक जी सादर अभिवादन
अशोक भाई सुंदर रचना के लिए दिली मुबारकबाद कुबूल करें ! सुंदर भाव व सुंदर शब्दों में सुंदर रचना बन पड़ी है !
बहुत खूबसूरत बिम्ब बड़े होने का एहसास ,सुन्दर भाव ..इस प्यारी रचना के लिए बधाई
bahut acchi nazm
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