दुनिया यही सिखाती हरदम, सीख सके तो तू भी सीख।
आदर्शों पर चलकर हासिल, कुछ ना होगा, मांगो भीख।
तीखे कर दांतों को अपने, मत रह सहमा औ मासूम।
जंगल का कानून यही है, गीदड़ बन जा पी खा झूम।
उनकी तो किस्मत है मरना, हिरण बिचारे सब अंजान।
कदम कदम पे गहरे गड्ढे, गिर गिर गंवा रहे हैं जान।
शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।
भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज।
हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।
कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।
कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।
वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।
देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।
हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।
चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।
छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।
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- संजय मिश्रा 'हबीब'
Comment
बहुत बढ़िया आल्हा
शिराओं में वीर रस का संचार करने वाली
चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।
छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।
ऐसे आपका प्रयास नहीं पूर्ण सफल काव्य है ...बधाई
भरी रवानी है आल्हों मे, दिखलाते भारत के हाल,
रूपक सुन्दर पेश किया है, दिखलाया नेतों का हाल।
बहुत अच्छा लगा आल्हा पढ़कर। यह रूपक का बेहतरीन उदाहरण भी है।
बधाई स्वीकारें
कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।
वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।
देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।
हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।
आदरणीय मिश्र 'हबीब' जी तीखे धार वाली रचना ......इस से भी उनके अहम् और पर ना कटें तो उनको चुल्लू भर पानी खोजना चाहिए
दुनिया यही सिखाती हरदम, सीख सके तो तू भी सीख।
आदर्शों पर चलकर हासिल, कुछ ना होगा, मांगो भीख।....सही गुस्सा...क्या हल?
तीखे कर दांतों को अपने, मत रह सहमा औ मासूम।
जंगल का कानून यही है, गीदड़ बन जा पी खा झूम।....समय क़े साथ चल.
उनकी तो किस्मत है मरना, हिरण बिचारे सब अंजान।
कदम कदम पे गहरे गड्ढे, गिर गिर गंवा रहे हैं जान।...मची हुई झूठी हलचल.
शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।
भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज। ....शहर में जंगल!!!
हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।
कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।.....चौकन्ना तू रह हर पल.
कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।
वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।....रोये भारती है पल-पल.
देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।
हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।...फिर भी लहू न रहा उबल!!!
चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।
छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।....कारो आप हम देखेंगे कल.
संजय भाई बस!लाजवाब...
आल्हा सीखने को रायपुर आना ही पड़ेगा....
देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।
हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।
बहुत सुन्दर समसामयिक आल्हा ओ बी ओ की जय बोलो जो इस विलुप्त होती हुई विद्या को जीवंत बना रहा है badhaai
हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।
कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।
बहुत खूब , हबीब साब ! सटीक और सत्य को दर्शाती , खूबसूरत लफ़्ज़ों से सजी बढ़िया ग़ज़ल !
आदरणीय बागी जी, प्रदीप कुशवाहा जी, डा बाली जी, इस अनगढ़ प्रयास को सराह्कर उत्साहवर्धन करने के लिए सादर आभार...
आदरणीय कुशवाहा जी, ओ बी ओ के आयोजनों में ही आल्हा को पढ़कर जो समझ पाया उसी आधार पर यह अनगढ़ प्रयास किया है... विधा के शिल्प की विस्तृत जानकारी पाने हेतु यह विद्यार्थी भी उतना ही लालायित है... सादर... प्रतीक्षित...
"शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।
भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज."
संजय भाई बहुत सुंदर आल्हा । अरसा हो गया था इस छंद से वाकिफ हुए। आपने पुराने दिनों की धुने गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया बहुत सुंदर समसामयिक आल्हा!!
"
आदरणीय संजय जी, सादर
बहुत खूब संजय भाई, आल्हा अपने रवानी में सफल है, बहुत ही सुन्दर कथ्य, बस आनंद आ गया , बधाई स्वीकार हो |
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