चक्षु पटल भींच
एक अक्स उभरता है...
जो गहन तिमिर में
कोटिशः सूर्य सा चमकता है...
स्मरण जिसका महका देता है
सम्पूर्ण जीवन...
ख़ामोशी में गूंजती है
जिसकी प्रतिध्वनि अन्तः करणों में
और उन अनकहे शब्दों की
झंकृत स्वर तरंगें
नस नस में दौढ़ती हैं
सिहरन बन कर...
और बेसुध मन बावरा
तय कर लेता है
मीलों के फांसले
एक क्षण में...
न ये मोहब्बत है, न दोस्ती
न कोई पहचान है
न ही वो अनजान है
न हैं कोई सपने और अपेक्षाएं
न ही खुशी और दर्द
न पाने की आस
न बिछड़ने का डर...
लगता है
शायद मैं ही हूँ
एक और रूप में
...........दूर कहीं...
सदियों से खुद से बिछुड़ी
अब स्वयं का ही
बोध पा
बिलकुल शांत…
Comment
आदरणीय अशोक रकताले जी, इस अभिव्यक्ति को सराहने के लिए हार्दिक आभार...
डॉ. प्राची जी
सादर, बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति, शायद यही सर्वोत्तम योग मुद्रा हो.बधाई.
इस रचना की सराहना हेतु हार्दिक आभार भावेश राजपाल जी
आदरणीय अरुण जी , राजेश कुमारी जी, प्रदीप कुशवाहा जी, सुरेन्द्र शुक्ला जी, रेखा जी, आप सब का ह्रदय से आभार...
Prachi ji ,
सदियों से खुद से बिछुड़ी
अब स्वयं का ही
बोध पा
बिलकुल शांत…svym ka bodh pa kar shanti hi milti hae ,badhai
और बेसुध मन बावरा
तय कर लेता है
मीलों के फांसले
एक क्षण में...
न ये मोहब्बत है, न दोस्ती
न कोई पहचान है
न ही वो अनजान है
हाँ डॉ प्राची जी जब खुद का बोध हो जाता है ..एक गहन अभिव्यक्ति में खो जाते हैं हम और फिर सब शांत . शून्य ....सुन्दर रचना ... जय श्री राधे
आदरणीय प्राची जी, सादर
बिलकुल शांत बिलकुल शांत बिलकुल शांत
बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति मैंने इसे पहले भी पढ़ा था इस बार भी पढने में उतना ही मजा आया
स्वयं का बोध एक रचना की उपलब्धि है और साहित्यिक संतोष का कारक भी | सारगर्भित और विचारपरक रचना के लिए हार्दिक साधुवाद डॉ प्राची जी !!
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