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मैं ही हूँ (5.04.2012)

चक्षु पटल भींच
एक अक्स उभरता है...
जो गहन तिमिर में
कोटिशः सूर्य सा चमकता है...
स्मरण जिसका महका देता है
सम्पूर्ण जीवन...
ख़ामोशी में गूंजती है
जिसकी प्रतिध्वनि अन्तः करणों में
और उन अनकहे शब्दों की
झंकृत स्वर तरंगें
नस नस में दौढ़ती हैं
सिहरन बन कर...
और बेसुध मन बावरा
तय कर लेता है
मीलों के फांसले
एक क्षण में...
न ये मोहब्बत है, न दोस्ती
न कोई पहचान है
न ही वो अनजान है
न हैं कोई सपने और अपेक्षाएं
न ही खुशी और दर्द
न पाने की आस
न बिछड़ने का डर...
लगता है
शायद मैं ही हूँ
एक और रूप में
...........दूर कहीं...
सदियों से खुद से बिछुड़ी
अब स्वयं का ही
बोध पा
बिलकुल शांत…

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 2, 2012 at 10:01am

आदरणीय अशोक रकताले जी, इस अभिव्यक्ति को सराहने के लिए हार्दिक आभार...

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 2, 2012 at 6:56am

डॉ. प्राची जी

                  सादर, बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति, शायद यही सर्वोत्तम योग मुद्रा हो.बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 30, 2012 at 10:00am

इस रचना की सराहना हेतु हार्दिक आभार भावेश राजपाल जी

Comment by Bhawesh Rajpal on May 28, 2012 at 8:46pm
बेहद गहन  सच का अहसास  करा दिया  ! स्वयं की अनुभूति  ! अति सुन्दर !  शब्द कम पड़ जाते हैं ऐसी रचना की प्रशंसा में !
आदरणीय डॉ. प्राची  जी ,  आपको  इतनी उत्तम रचना के लिए बहुत-बहुत-बहुत-बहुत बधाई  !-भवेश  राजपाल  ! 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 28, 2012 at 10:43am

आदरणीय अरुण जी , राजेश कुमारी जी, प्रदीप कुशवाहा जी, सुरेन्द्र शुक्ला जी, रेखा जी, आप सब का ह्रदय से आभार...

Comment by Rekha Joshi on May 27, 2012 at 11:31pm

Prachi ji ,

सदियों से खुद से बिछुड़ी
अब स्वयं का ही
बोध पा
बिलकुल शांत…svym ka bodh pa kar shanti hi milti hae ,badhai

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 26, 2012 at 11:18pm

और बेसुध मन बावरा
तय कर लेता है
मीलों के फांसले
एक क्षण में...
न ये मोहब्बत है, न दोस्ती
न कोई पहचान है
न ही वो अनजान है

 हाँ डॉ प्राची जी जब खुद का बोध हो जाता है ..एक गहन अभिव्यक्ति में खो जाते हैं हम और फिर  सब शांत . शून्य ....सुन्दर रचना ... जय श्री राधे 

भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण  


Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 26, 2012 at 10:28pm

आदरणीय प्राची जी, सादर

बिलकुल  शांत  बिलकुल शांत  बिलकुल शांत 

बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 26, 2012 at 5:30pm

बहुत सुन्दर प्रस्तुति मैंने इसे पहले भी पढ़ा था इस बार भी पढने में उतना ही मजा आया 

Comment by Abhinav Arun on May 26, 2012 at 2:47pm

स्वयं का बोध एक रचना की उपलब्धि है और साहित्यिक संतोष का कारक भी | सारगर्भित और विचारपरक रचना के लिए हार्दिक साधुवाद डॉ प्राची जी !!

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