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दो कवितायेँ किसान भाईयों के लिए

किसान भाईयों के लिए जो निरंतर आत्महत्याओं के लियें विवश हो रहे हैं ...
.
१.मैं किसान हूँ  
मैं बोता हूँ
गन्ने , चावल , आलू
सब्जियां और ना जाने
कितनी फसलें
खोदता हूँ मिटटी
प्यार से रोपता हूँ
देता हूँ स्नेह
इंच दर इंच बढ़ना
 रोज ताकता हूँ
और नाच उठता हूँ
बढ़ता देख
गाता हूँ ख़ुशी के गीत
रात भर जगता हूँ
करता हूँ पहरेदारी
कोई देना उसे तकलीफ
उखाड़ ना दें कोई उसे
जड़ो से
पर मिलता हैं उसके बदले
मुठी भर रूपये
गरीबी , जहालत
लेनदारो का कर्ज  
पत्नी की आँखों में दर्द
बच्चो का भूखे बिलबिलाना
बैलो का चारे बिना
तड़प तड़प के मर जाना
क्योंकि बोरी भर फसलें मेरी
बिक जाती हैं मिटटी के मोल
ठगा सा मैं खड़ा 
देखता हूँ आकाश को 
जेठ की धुप
क्या जलाएगी 
अब तो तिल तिल   मर रहा हूँ
गले में कसी
कर्ज की हुक से ....
 
.
ये परजीवी    ( खुदगर्ज   समाज को परजीवी संबोधित किया है )
 
ये जिन्दा रहें
फले फूलें
हँसे मुस्कुराएँ
नाचे गायें 
इसके लिए
उन्हें देता हूँ
भूखे रह कर भी 
अमृत रूपी अन्न
नाना प्रकार के सुस्वाद का
करता हूँ इंतजाम 
ये सुंदर लगे 
सजे सवरें
घर को भी
सुसज्जित करें
इसलिए नंगा रह कर भी
उपजाता हूँ कपास
आंधी -पानी हो
या कड़ी धूप
अथक डटा रहता हूँ 
ताकि ये
निरंतर बढते रहें
सुखी रहें
पर इनकी भूख 
सुरसा की तरह बढती ही जाती है
और एक दिन
मैं भी हो जाता हूँ
इनका ग्रास ....
  
 
 
 

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Comment

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Comment by MAHIMA SHREE on May 31, 2012 at 8:31pm

आदरणीया वंदना जी .. आपका हार्दिक धन्यवाद /

Comment by MAHIMA SHREE on May 31, 2012 at 8:29pm
आदरणीय प्रदीप सर , सादर प्रणाम ..
आपके समर्थन भरे  शब्दों के लिए हार्दिक आभारी हूँ / स्नेह बनाये रखे / 

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 31, 2012 at 11:50am

दोनों कवितायेँ बहुत सुन्दर कहीं हैं महिमा जी, बधाई स्वीकार करें और आदरणीय सौरभ भाई जी की बात पर अवश्य ध्यान दें.

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 30, 2012 at 6:17pm

किसानों की व्यथा और उनकी दुर्दशा सामाजिक असंवेदनशीलता के कारण ही है.  यह बात मुखरित हो कर आयी भी है. 

महिमा श्री आपके लेखन और उसके निहितार्थ पर बधाइयाँ. 

टंकण त्रुटियों की ओर वकोध्यान रहे. रचना को पढ़ते समय उनका होना बहुत खलता है.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 30, 2012 at 4:02pm

स्नेही महिमा   जी, सस्नेह 

वास्तविक चित्रण. 
किसान ऐसे ही रह जाता है
उपजाता अन्न वो खुद भूखा रह जाता है
 
बधाई. 
Comment by himanshu patel on May 29, 2012 at 10:20pm

i like that stories

Comment by MAHIMA SHREE on May 28, 2012 at 10:54pm

आदरणीय रेखा जी , नमस्कार

सराहने और उत्साहवर्धन के लिए आपका ह्रदय से शुक्रिया

Comment by MAHIMA SHREE on May 28, 2012 at 10:53pm

आदरणीय डॉ सूरज सर , नमस्कार

आपके प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ / बिलकुल डॉ साहब कुछ पल ही सही पर अपनी आरामदायक दुनिया से बाहर निकल के उन किसानो के लिए भी मन  में भी चिंतन आना चाहिए जिनके वजह से हम सुस्वाद भरे व्यंजन का प्रतिदिन स्वाद लेते है और अच्छे कपडे पहन कर रहते है /

आपका बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए

Comment by MAHIMA SHREE on May 28, 2012 at 10:47pm

आदरणीया राजेश दी , नमस्कार

बिलकुल सही चिंता व्यक्त किया है आपने किसानो के लिए, सरकार की नीतियाँ बहुत हद तक किसानो की बर्बादी का सबब है .  बहुरास्ट्रीय कृषि व्यापार कंपनियों से विदेशी हायब्रिड बीज खरीदने के लिए दबाब डालना , फिर उसके लिए महंगे  खाद  और कीटनाशको  का इंतजाम ..इन सब  के लिए बैंक से कर्ज और अगर  फसल बर्बाद हो गयी तो , फिर से आयातित बीजो के लिए सरकार का मुंह ताकना आदि किसानो को आत्महत्या करने को विवश कर रही है और प्रतिवर्ष अनुपात दुगना ही होता जा रहा है /

आपके विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ

Comment by Rekha Joshi on May 28, 2012 at 10:10pm

महिमा जी ,किसानो पर दोनों ही रचनाये .बहुत बढ़िया लिखी है ,बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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