ग़म ज़िंदगी में देख के रोया नहीं कभी।
अश्क़ों से अपने गाल भिगोया नही कभी॥
हर सिम्त है धुआं यहाँ हर सिम्त आग है,
इस खौफ़ से ही चैन से सोया नही कभी॥
दिल में जिगर में था वही साँसों में वही था ,
आँखों के सामने से वो खोया नही कभी॥
ख़ुशबू बदन की उसके ना उड़ जाये इसलिए,
बिस्तर की अपने चादरें धोया नही कभी॥
लेकर बहुत से दर्द वो चुपचाप मर गया,
कांटे किसी की राह में बोया नही कभी॥
मज़बूरियाँ थी ज़िंदगी भर साथ में मगर,
रिश्तों को बोझ जान के ढोया नही कभी॥
यह सोचकर कि फूल के सीने में भी है दिल,
“सूरज” सुई से हार पिरोया नही कभी॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
Comment
फूल के सीने में भी है दिल,
“सूरज” सुई से हार पिरोया नही कभी..... अति सुन्दर ......
कृपया करने को कहने पढ़ें.धन्यवाद.
आदरणीय बाली जी
सादर नमस्कार, बहुत सुन्दर गजल मजा आगया किन्तु एक शेर पढ़कर तो बस उफ़! मोहब्बत करने को ही मन किया. बधाई.
ख़ुशबू बदन की उसके ना उड़ जाये इसलिए,
बिस्तर की अपने चादरें धोया नही कभी॥
दिल में जिगर में था वही साँसों में था वही,
आँखों के सामने से वो खोया नही कभी॥
ख़ुशबू बदन की उसके ना उड़ जाये इसलिए,
बिस्तर की अपने चादरें धोया नही कभी॥
लेकर बहुत से दर्द वो चुपचाप मर गया,
कांटे किसी की राह मे बोया नही कभी॥
आदरणीय डॉ सूरज जी .. आप की गज़ल तो बहा ले जाती है ... हर बार की तरह .उम्दा ..
बधाई स्वीकार करें
ख़ुशबू बदन की उसके ना उड़ जाये इसलिए,
बिस्तर की अपने चादरें धोया नही कभी॥
लेकर बहुत से दर्द वो चुपचाप मर गया,
कांटे किसी की राह मे बोया नही कभी॥
आदरणीय श्री डॉ. बाली , आपकी गज़लें हमेशा ही उच्च स्तर की होती हैं ! ये भी वही स्तर की है ! उच्चतम ! बहुत सुन्दर ! हर शेर खूबसूरत ! बधाई ! किन्तु सिम्त का मतलब समझ नही आया ! कृपया बताएं !
ख़ुशबू बदन की उसके ना उड़ जाये इसलिए,
बिस्तर की अपने चादरें धोया नही कभी॥
bahut khoob sir ji ........................waah kya baat hai
वाह वाह वाह डॉ बाली साहिब, बहुत ही उम्दा अशआर कहे हैं. मतले से मक्ते तक एक से बढ़कर एक. किसी एक को हासिल-ए-ग़ज़ल कहना बाकियों के साथ नाइंसाफी होगी. एक शे'र की तरफ आपकी तवज्जो चाहूँगा :
//दिल में जिगर में था वही साँसों में था वही,
आँखों के सामने से वो खोया नही कभी॥//
मिसरा-ए-अव्वल में अंत में "वही" और सानी के अंत में "कभी" आ जाने से तकाबुल-ए-रदीफ़ का ऐब आ गया है. इस पर नज़र-ए-सानी अवश्य फरमा लें, सादर.
हर सिम्त है धुआं यहाँ हर सिम्त आग है,
इस खौफ़ से ही चैन से सोया नही कभी॥
क्या बात है ...क्या बात है बहुत खूब
ग़म ज़िंदगी के देख के रोया नहीं कभी।
अश्क़ों से अपने गाल भिगोया नही कभी
दिल को छूने वाली पंक्तिया ....सुन्दर अति सुन्दर
बहुत बहुत बधाई डॉ सूर्या बाली "सूरज" साहेब,
मज़ा आ गया ..बहुत ख़ूब कहा . हर शे'र में एक बात है . लेकिन मुझे लगता है कुछ अक्षर या शब्द बार बार रिपीट हो रहे हैं अथवा कुछ शब्द लिंगभेद का भी शिकार हो रहे हैं . बुरा न मानना . मैं ख़ुद ग़ज़ल में अभी नौसिखिया हूँ लेकिन कुछ सुझाव दे रहा हूँ ......जँचे तो काम में ले लें अन्यथा डिलीट कर दें
सादर
ग़म ज़िंदगी के देख के रोया नहीं कभी। _____ग़म ज़िन्दगी में
अश्क़ों से अपने गाल भिगोया नही कभी॥____अश्क़ों से अपना
हर सिम्त है धुआं यहाँ हर सिम्त आग है,
इस खौफ़ से ही चैन से सोया नही कभी॥ ____इस खौफ़ में --या--इस खौफ़ से ही रात भर
दिल में जिगर में था वही साँसों में था वही,
आँखों के सामने से वो खोया नही कभी॥
ख़ुशबू बदन की उसके ना उड़ जाये इसलिए,____ख़ुशबू -ए-बदन उसकी न
बिस्तर की अपने चादरें धोया नही कभी II ____बिस्तर की चादरों को भी
लेकर बहुत से दर्द वो चुपचाप मर गया,
कांटे किसी की राह मे बोया नही कभी॥ ____कांटा
मज़बूरियाँ थी ज़िंदगी भर साथ में मगर,
रिश्तों को बोझ जान के ढोया नही कभी॥
यह सोचकर कि फूल के सीने में भी है दिल,
“सूरज” सुई से हार पिरोया नही कभी॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
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