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जब मैं बाजार से लौटकर आया तो देखा कि पड़ोसी के बच्चे मेरी खिड़की के पास खड़े हैं।
"लगता है इन कमबख्तों ने खिड़की का शीशा तोड़ दिया,इनके बाप से वसूलता शीशे का दाम"-मैंने सोचा।
जब मैं खिड़की के पास पहुंचा तो देखा कि वास्तव में शीशा टूटा हुआ है।अब तो मेरा रोष सातवें आसमान पर पहुंच गया।
मैंने डपटकर पूछा-"किसने तोड़ा है इसे?.........मेरा मुंह क्या देख रहो सब? जवाब दो।"सभी बच्चे डर गये।
तब तक मेरी नजर वहीं पास खड़े मेरे अपने बेटे मनीष पर गई,मैं डर गया कि "कहीं इसने तो नहीं तोड़ा,फिर मैं शीशे का दाम कैसे वसूल करूंगा।और बेइज्जती अलग से।"
मैं इतना सोच ही रहा था कि
रामू बोला-"मैंने नहीं तोड़ा है,इसने तोड़ा है।"
रवि बोला-"मैंने नहीं मनु ने तोड़ा है।"
मनु अपराधी की तरह हाथ जोड़कर कांपता हुआ आया-"ज्ज........जी........!.......अंकल जी मैंने तोड़ा है।म........मु......मुझे माफ कर ..........दीजिए,गलती हुई।"
मेरा मन उछल पड़ा-"सच.................।"
मैं खुश हो गया था कि मेरे अपने बेटे ने नहीं तोड़ा है।

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 4, 2012 at 6:05pm
आदरणीय बागी जी पूज्य गुरुदेव श्री सौरभ जी रचना की प्रतिक्रिया पर देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं।आपने बालक के प्रयास को सराहा,बालक अभिभूत है।आप सबका हार्दिक आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 4, 2012 at 6:02pm
आदरणीय लक्ष्मण,संदीप पटेल भाई,संदीप द्विवेदी,कुमार गौरव जी,फूल सिंह जी,राक्तले जी,आदरणीया राजेश कुमारी जी आप सभी गुरुजनों को बालक की बचकानी रचना को सराहना हेतु हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2012 at 5:42pm

लोग दोहरे मापदंड में जीते हैं बखूबी चित्रण किया कहानी में बधाई आपको 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 4, 2012 at 3:48pm

अग्रज लडीवाला जी, ओबीओ पर उदीयमान साहित्यकारों का उचित मार्गदर्शन करना हमारा मुख्य उद्देश्य रहा है. इसी कारण अनुज विन्ध्येश्वरी प्रसाद जी को अपनी बेबाक राय से अवगत करवाना अपना फ़र्ज़ समझा. आपको तो अपनी रचनायों पर दया ही आती होगी मुझे तो ओबीओ के साथ जुडने से पहले कही गई अपनी ग़ज़लों पर रोना आता है.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 4, 2012 at 3:17pm
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ने कहानी को लघु करते हुए कहानी की सम्पूर्ण बात भी कहकर, जो शिक्षित किया है, उससे मेरे को मेरी अब तक की कहानियो पर दया आ रही है | इस महान शिक्षक दिवस पर साहित्य जगत के शिक्षक को सदर नमन

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 4, 2012 at 2:47pm

भाई विन्ध्येश्वरी जी, लघुकथा कहने का सद्प्रयास हुआ है. जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. रचना अभी भी बहुत सारी कसावट मांग रही है. लघुता क्योंकि इस विधा की विशष्ट है अत: यह ज़रूरी हो जाता है कि इसमें एक भी शब्द फालतू न कहा जाये ताकि कहानी कसी हुई रहे. दरअसल, लघुकथा में जो कहा जाता है वह तो महत्वपूर्ण होता ही है, उस से भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है जो नहीं कहा गया हो. "जो नहीं कहा गया" को दो तरीके से समझा जा सकता है:

१. वह बात जिसको केवल इशारे में कहा गया हो.
२. वह बात जो अगर न ही/भी कही जाती तो बेहतर होता
.
अब आपकी इसी लघुकथा की बात करते हैं, इसकी पहली पंक्ति देखिए:

//जब मैं बाजार से लौटकर आया तो देखा कि पड़ोसी के बच्चे मेरी खिड़की के पास खड़े हैं।//
आप बाज़ार से आए या कहीं और से यह बताने की आवाश्यकता नहीं थी, इतने से ही काम चल सकता था. 
//पड़ोसियों के बच्चे मेरी खिड़की के पास खड़े हैं।//

//लगता है इन कमबख्तों ने खिड़की का शीशा तोड़ दिया,इनके बाप से वसूलता शीशे का दाम"-मैंने सोचा।
जब मैं खिड़की के पास पहुंचा तो देखा कि वास्तव में शीशा टूटा हुआ है।अब तो मेरा रोष सातवें आसमान पर पहुंच गया।// क्या इतना कहने से काम न चल जाता? 

//पास पहुंचा तो देखा कि मेरी खिड़की का शीशा टूटा हुआ था, जिसे देखकर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया//

//मैंने डपटकर पूछा-"किसने तोड़ा है इसे?.........मेरा मुंह क्या देख रहो सब? जवाब दो।"सभी बच्चे डर गये।/// अगर इसे यूं कहा जाए:

//मैंने डपटकर पूछा-"किसने तोड़ा है इसे?
सभी बच्चे डर गये।

//तब तक मेरी नजर वहीं पास खड़े मेरे अपने बेटे मनीष पर गई,मैं डर गया कि "कहीं इसने तो नहीं तोड़ा,फिर मैं शीशे का दाम कैसे वसूल करूंगा।और बेइज्जती अलग से।"// अपने बेटे का ज़िक्र इस जगह करके आपने कहानी का आधा स्वाद खराब कर दिया. उसका जो ज़िक्र अंत में किया है वही काफी था अपनी बात कहने के लिए.

बाक़ी कहानी ठीक ठाक है. लघुकता कहते समय यदि इन छोटी छोटी बातों का ध्यान रखेंगे तो रचना का प्रभाव कई गुना हो जायेगा. सस्नेह

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 12:40pm

वाह वाह भाई विन्ध्यश्वरी जी सार्थक चोट करती हुई रचना बधाई हो आपको इस उन्नत रचना हेतु

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 4, 2012 at 12:37pm

क्रोध को पानी कर देने वाली सुन्दर लघुकथा. बधाई.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 11:17am

इंसानी फ़ितरत का सटीक चित्रण त्रिपाठी जी! साभार,

Comment by PHOOL SINGH on September 4, 2012 at 10:52am

त्रिपाठी जी नमस्कार,,,,,

सुंदर कहानी...........बधाई...

फूल सिंह

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