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//परन्तु हमें किसी को मूरख कहने का हक भी नहीं है क्योंकि ऐसा तो सिर्फ कबीर' जैसे पहुँचे हुए विद्वान ही कह सकते हैं//
शब्दों के प्रयोग अनुभवजन्य जागरुकता तथा वैचारिक व्यापकता की तार्किकता पर निर्भर होते हैं. प्रत्येक शब्द के अपने विशेष अर्थ और उसकी अपनी तीव्रता होती हैं. यही कारण है कि संस्कृत में एकदम पर्याय शब्द नहीं होते. सबकी अपनी-अपनी भाव-दशा होती है. हिन्दी चूँकि संस्कृत का सरल (अवहट्ट से होती हुई) स्वरूप है, अतः यह गुण यहाँ भी विद्यमान है.
मूरख मूढ़ का देसज स्वरूप है. मूढ़ नासमझ को तो कहते ही हैं, उसे भी कहते हैं जो जानते-बूझते उस पर अमल नहीं करता या कर पाता. संस्कृत ऐसी भाषा है जिसमें किसी प्राणी के प्रति कर्कश अथवा अपमानजनक शब्द नहीं हैं. इसके बावज़ूद मूढ़ उन कुछ शब्दों में से है जो नासमझी करने वालों के लिये प्रयुक्त होता है. यह इस शब्द को अपमानजनक न मान कर हम इसे मूलतः गुण-विशेष का द्योतक मानें.
विश्वास है, आप मेरे कहे से संतु्ष्ट हो पायेंगे.
आदरणीया प्राची जी,
भक्ति की पराकाष्ठा संप्रेषित करती आपकी यह दोहावली अत्यंत ही मनभावन है! सादर,
आदरणीय अम्बरीश जी,
धन्यवाद डॉ० प्राची जी, आपने सही कहा है परन्तु हमें किसी को मूरख कहने का हक भी नहीं है क्योंकि ऐसा तो सिर्फ कबीर' जैसे पहुँचे हुए विद्वान ही कह सकते हैं ....सस्नेह
मूरख खोजे मंदिरों, नयन दरस कर पाय l
आदरणीय अम्बरीश जी, इस दोहवाली को आपने सराहा, यह बहुत उत्साहवर्धक है.
डॉ० प्राची जी, गुरु चरणों में समर्पित सुन्दर व भावपूर्ण उत्कृष्ट दोहावली पढकर मन प्रसन्न हो गया ....इस हेतु हमारी ओर से बहुत- बहुत हार्दिक बधाई स्वीकारें ....
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपको दोहावली निहित गुरु भक्ति भाव पसंद आया इस हेतु आपका हार्दिक आभार
वाह प्रिय प्राची जी बेहतरीन भक्तिभाव मय उत्कृष्ट दोहे मजा आ गया पढ़ कर
दोहों की सराहना व टंकण त्रुटि इंगित करने हेतु आभार आ. अशोक कुमार रक्ताले जी
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