"मन"
सुबह सुबह
चिड़ियों का कलरव
झरने का कलकल
ठंडी हवाओं के झोंके लयबद्ध तान
कोयल की कूक
मुर्गे की बांग
ये सब संगीत है या शोर
प्रकृति का
ये सब मन की दशा पे निर्भर है
कभी ये सब संगीत लगता है
पटरी पे दौड़ती
सरपट लोहपथगामिनी का
चीखता निनाद भी
और कभी इक सुई का गिरना भी
कर्कश स्वर सा
शोर सा
मन स्वाभविक वृत्तियों में जकड़ा हुआ है
किन्तु है स्वतंत्र
जब इसे संगीत सुनना है तो सुनना है
जब नहीं तो नहीं
कभी कभी तो संगीत भी कोलाहल बन जाता है
मन को संगीत भाता है
कोलाहल नहीं
जब कोलाहल संगीत बन जाए
अर्थात मन संगीतमय है
मन संगीतमय है अर्थात प्रसन्न है
और प्रसन्न मन में कोलाहल संभव ही नहीं
चाहो तो कौए को ग़ज़ल पढने कह दो
उसको भी वाह वाही मिल ही जाएगी
क्यूंकि मन चाह रहा है सुनना
फिर ऐसे मैं चाहो तो गालियाँ दे कर देखो
अन्यथा वही मन जब न चाहे तब
लता जी के गाने में अंतर्मन चीख उठे
बंद करो ये शोर
खैर मन तो मन है
इसकी अपनी दुनिया है
जो कभी कभी नहीं हमेशा स्वक्षंद होती है
बस भविष्य और भूत में कहीं कहीं
स्वयं पराभूत हो जाता है मन
और छटपटाने लगता है
स्वतंत्रता के लिए जिसमे वो खुद फंसा है
ये मन भी न
बुद्धिमान बेबकूफ है
संदीप पटेल "दीप"
Comment
वाह ! बहुत खूब.. .
सादर,
सही कहा है आपने मन कब शोर में भी संगीत ढूंढ ले कोइ नहीं जानता. बहुत सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें.
आदरणीया राजेश कुमारी जी सादर प्रणाम
आपको रचना पसनद आई और आपकी सराहना मिली
आपका बहुत बहुत शुक्रिया और सादर आभार
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय योगी जी
स्नेह और सहयोग यूँ ही बनाये रखिये सादर आभार
ये सब मन की दशा पे निर्भर है
कभी ये सब संगीत लगता है
पटरी पे दौड़ती
sundar shabd
सरपट लोहपथगामिनी का
चीखता निनाद भी
और कभी इक सुई का गिरना भी
कर्कश स्वर सा
शोर सा
प्रिय विशाल बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है मनोदशा के विभिन्न आयामों का सच कहा है मन की स्थिति के ऊपर ही सब निर्भर करता है मन खुश है तो पतझड़ में वसंत और खुश नहीं तो वसंत में पतझड़ दिखाई देता है |
आदरणीय भावेश जी , आदरणीया डॉ. प्राची जी और सरिता जी आप सभी का ह्रदय से कोटि कोटि धन्यवाद और सादर आभार
ये स्नेह और आशीष यूँ ही बनाये रखिये सादर
समय दे कैसे दूं
नित सृजन करने में लगे रहना ही मेरा कर्तव्य है
हाँ इक दिन लिखते लिखते सोचते सोचते हो सकता है कुछ परिपक्वता आ जाये आप सभी मित्रों और अग्रजों के आशीर्वाद से
बाकी कविता मैं एडिटिंग मुझे नहीं भाती
कविता तो इक हृदय सागर से निकलती है और दूसरे ह्रदय सागर में ही विलीन हो जाती है
sabhee bhav prashnasneeya hai...parantu mukt chhnd ki kavita aur gadya me ek bareek si maheen se vibhajan rekha hoti hai...yah rekha mit ti huee si prateet hoti hai... sadar.
मन अपनी अवस्था को ही जीता है....पूरा एक्स-रे है इस रचना में मन को कब सुन्दर स्वर भी शोर लगने लगें, और कब कोलाहल भी सुरीला.... इस गहन अभिव्यक्ति हेतु बधाई. पर संदीप जी, अक्सर आपके कथ्य भाव्सम्प्रेषण में काव्यात्मकता को पीछे छोड़ जाते हैं. यदि इस रचना को थोड़ा और वक़्त मिलता तो आप इसे बहुत प्रभावी काव्यरूप दे पाते. सादर.
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