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ग़ज़ल "बहरे - रमल मुसम्मन मह्जूफ़"

==========ग़ज़ल===========
बहरे - रमल मुसम्मन मह्जूफ़
वज्न- २ १ २ २- २ १ २ २ - २ १ २ २- २ १ २

पीर है खामोश भर के आह चिल्लाती नहीं
वो सिसकती है ग़मों में नज्म तो गाती नहीं

बाद दंगों के उडी हैं इस कदर चिंगारियाँ
आग है सारे दियों में तेल औ बाती नहीं

जिन सफाहों पर गिराया हर्फे-नफ़रत का जहर
हैं सलामत तेरे ख़त वो दीमकें खाती नहीं

चाँद को पाने मचलता जब समंदर का जिगर
मौज उठती है बहुत पर चाँद छू पाती नहीं

एक कोने में रखी जो सीख देती थी हमें
मौन है सूनी वो खटिया आज बतियाती नहीं

आधुनिक संसार में अब ज्ञान गूगल दे रहा
मान मर्यादा की शिक्षा छात्र को भाती नहीं

जिस हवा में बह गए हिटलर से तानाशाह भी
वो बगावत की हवा तूफ़ान अब लाती नहीं

आँख मूंदे खोजता है रोशनी नादान पर
ये अँधेरी राह तो मंजिल तलक जाती नहीं

वक़्त से ही सीखते हैं ये हुनर अब हम सभी
ज्यों नदी की धार पीछे लौट कर जाती नहीं

वो सनम जो बीच चौराहे खड़ा डंडा लिए
एक दिन पूजें उसे सब याद फिर आती नहीं

"दीप" जबसे पीठ पर खंजर चलाया यार ने
कर रहे हैं पीठ पक्की वीर अब छाती नहीं


संदीप पटेल "दीप"

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 18, 2012 at 1:56pm

आदरणीय गुरुवर सौरभ सर जी सादर प्रणाम
तब मैंने इस शेर में इस स्वीकारोक्ति को इस तरह ठीक किया है
क्या अब ये सही है
पीर है खामोश भर के आह चिल्लाती नहीं
बस सिसकती है ग़मों में नज्म भी गाती नहीं

स्नेह और आशीष बनाये रखिये सर जी बाकी अशआरों में समय रहते सुधार करके देखूंगा


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2012 at 5:17pm

//इससे नज्म भी करने में इक स्वीकारोक्ति है के पहले गाती थी //

हाँ, इसी स्वीकारोक्ति को रेखांकित किया जाय कि पहले शायद दर्द बयान करती गाती हो, अब गाती भी नहीं.

अन्य शेर गठन के क्रम में थोड़ी मशक्कत चाहते हैं.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 17, 2012 at 1:10pm

आदरणीय गुरुवर सौरभ सर जी , आदरणीय वीनस सर जी
आपके कहे को मैं समझ गया हूँ इस शेर को ऐसे सुधारा है कृप्या मार्गदर्शन कीजिये

पीर है खामोश भर के आह चिल्लाती नहीं
वो सिसकती है ग़मों में नज्म भी गाती नहीं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,इससे नज्म भी करने में इक स्वीकारोक्ति है के पहले गाती थी इसीलिए मैंने तो का इस्तेमाल किया था सर जी

जिस हवा में बह गए हिटलर से तानाशाह भी
वो बगावत से भरा तूफ़ान अब लाती नहीं

चाँद को पाने मचलता जब समंदर का जिगर
मौज उठती है बहुत पर चाँद छू पाती नहीं

आदरणीय वीनस सर जी इस शेर को इस तरह करने से प्रवाह और भी जबरदस्त हो गया है

चाँद पाने को मचलता जब समंदर का जिगर
मौज उठती है बहुत पर चाँद छू पाती नहीं

मैंने इसे इस तरह करके आपकी गुंजाइश को पूरा करने की कोशिश की है
क्या ये सही है

इश्क की हसरत में मचले जब समंदर का जिगर
खूब उठती मौज लेकिन चाँद छू पाती नहीं


आपका बहुत बहुत शुक्रिया सहित सादर आभार

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 17, 2012 at 12:44pm

आदरणीय गुरुवर सौरभ सर जी,  आदरणीय नादिर खान साहब , आदरणीय गुलशन सर जी , आदरणीया राजेश कुमारी जी, आदरणीय लतीफ़ खान साहब, आदरणीय नीलांश जी , आदरणीय वीनस सर जी, आदरणीया रेखा जी आप सभी को सादर प्रणाम
आपने ग़ज़ल को वक़्त दिया और उसे सराह के जो हौसलाफजाई  की है उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया
अपना स्नेह अनुज पर यों ही बनाये रखिये

Comment by Rekha Joshi on October 17, 2012 at 10:13am

वक़्त से ही सीखते हैं ये हुनर अब हम सभी
ज्यों नदी की धार पीछे लौट कर जाती नहीं,उम्दा गजल पर हार्दिक बधाई  संदीप जी

Comment by वीनस केसरी on October 17, 2012 at 1:15am

वाह बड़े भाई वाह
क्या उम्दा ग़ज़ल कही है
शानदार अशआर से सजी और अलग ही तेवर से संवारी बेहतरीन ग़ज़ल के लिए ढेर सारी दाद क़ुबूल करें

इस एक शेर ने तो देर तक रोके रखा

एक कोने में रखी जो सीख देती थी हमें
मौन है सूनी वो खटिया आज बतियाती नहीं


जिंदाबाद भाई

सौरभ जी ने सही कहा है अब मीन चीजों का भी ध्यान दीजिए

चाँद पाने को मचलता जब समंदर का जिगर
मौज उठती हैं बहुत पर चाँद छू पाती नहीं
(अभी काफी गुंजाईश है यह शेर और अच्छा हो सकता है)

Comment by Nilansh on October 16, 2012 at 11:29pm

बहुत सुंदर ग़ज़ल संदीप जी

बहुत बधाई आपको 
Comment by लतीफ़ ख़ान on October 16, 2012 at 9:59pm

janab SANDEEP PATEL DEEP ji,Umda gazal ke liye badhai,

wo sisakti hai dukhon se geet to gati nahin

chand ko pane machalta.........maujen uthti hain bahut par..........bahut khoobsoorat sher hai..

Maqta bhi tarife-qaabil hai............Tahe-dil se mubarak bad....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 16, 2012 at 9:02pm

जिन सफाहों पर गिराया हर्फे-नफ़रत का जहर
हैं सलामत तेरे ख़त वो दीमकें खाती नहीं

चाँद को पाने मचलता जब समंदर का जिगर
मौज उठती है बहुत पर चाँद छू पाती नहीं ---सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं आपकी मेहनत सामने दिखाई दे रही है किसी एक शेर की क्या बात करूँ फिर भी इन दो शेरो के लिए वाह वाह वाह!!

Comment by ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi) on October 16, 2012 at 8:50pm

bahot khoob

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