सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
अस्तित्व स्वयं का तज बोलो
किसने अब तक पाया है सुख
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वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह क्या है,,,,इस सुन्दर गीत के लिये दिल से बधाई,,,,,,,,,,,
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है ....
तांबा सोने में मुस्काता ,तरणी क्षारित कहलाती हैं
लहरें बन व्याकुल ............
गहराई ली हुई उत्तम रचना बहुत खूब ....
आदरणीय सलिल जी,
/विलय के समय सागर की और ढाल पर बहती हुई सागर से मिल जाती है। मुझे लगता है 'गिरकर' के स्थान पर 'मिलकर' अधिक उपयुक्त होता। भाव की दृष्टि से 'गिरना' पतन का पर्याय है, 'मिलना' समानता या समर्पण का।//
हृदय से स्वागत है आपका और इतनी सहजता से बात समझाने के लिए आभारी हूँ आपकी..... उस स्थान पर मैं
मिलकर शब्द ही प्रयुक्त कर लेती हूँ
//सारतः रचनाकार न मिलन की पैरवी करता है न विरोध... वह मिलन के दोनों पक्षों को इंगित कर उनके परिणाम पाठक के सामने परोस देता है। मिलन कब-कहाँ उत्थानपरक है, कहाँ पतनोन्मुख मिलन के पूर्व यह विचारना आवश्यक है।//
कोटिशः प्रणाम आपको कि आपने मेरे रचना प्रयोजन को उचित शब्दों में प्रस्तुत किया है
फिर भी आप सभी से एक बात के लिए क्षमा अवश्य चाहती हूँ कि कि मैं आप सबके प्रश्नों को उचित शब्दों के साथ संतुष्ट कर सकी और न ही रचना में ही केन्द्रीय भाव का ठीक प्रकार से निर्वहन कर सकी हूँ ...यह आपका बड़प्पन है जो आपने इस तुच्छ प्रस्तुति को इतना मान दिया भावुक हूँ आपकी समीक्षा से आचार्य सलिल जी ......
//प्रथम अन्तरा मिलन से अस्तित्व मिटने और दूसरा अन्तरा मिलन से अस्तित्व समुन्नत होने के ऊपर से विरोधाभासी प्रतीत होते किन्तु मूलतः परिपूरक भावों को इन्गित करते हैं। यहाँ तथ्य और तत्त्व स्पष्टता से अभिव्यक्त हो सके हैं। 'लौ' और 'सविता' का स्त्रीलिंग होना या 'ताम्र' और 'स्वर्ण' का पुल्लिंग होना सायास नहीं प्रतीत हुआ।//
कोशिश करूंगी कि आगे से अपनी बात में और स्पष्टता रख सकूं ....सादर
सीमा जी!
आपकी उर्वरा कल्पनाशक्ति और कलम को नमन।
गीत का सृजन और विवेचना दो भिन्न आयाम है। गीति काव्य की रचना भावनाप्रधान कर्म है जिसमें तर्क या विवेचना गौड़ है। गीत को पढ़कर समझना पाठक की पात्रता और मनोभूमि पर निर्भर करता है। आपके इस गीत पर हुई स्वस्थ्य परिचर्चा के सभी सहभागियों को बधाई।
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
मेरी बाल बुद्धि के अनुसार सरिता जलप्रपात, गव्हर या निर्झर में गिरती कही जाती है, सागर में विलय के समय सागर की और ढाल पर बहती हुई सागर से मिल जाती है। मुझे लगता है 'गिरकर' के स्थान पर 'मिलकर' अधिक उपयुक्त होता। भाव की दृष्टि से 'गिरना' पतन का पर्याय है, 'मिलना' समानता या समर्पण का।
सरिता लहरों का ही समुच्चय है। सरिता और सागर का मिलन लहरों का लहरों से मिलन है। 'लहरें बन' से आभासित होता है कि मिलन के पश्चात् लहरों का निर्माण हुआ और वे बार-बार व्याकुल होकर तटबंधों से टकराती हैं। व्याकुलता विवशताजनित ही हो सकती है, स्वेच्छा में तो सुख की प्रतीति होती फिर टकराना नहीं ... 'हो' का दुहराव इंगित करता है कि व्याकुलता बार-बार हो रही है और टकराना केवल एक बार। 'हो फिर फिर' होता तो व्याकुलता की क्रिया एक बार और टकराने की क्रिया की आवृत्ति इंगित होती।
'बन' क्रिया को भी दो तरह से लिया जा सकता है... पहला लहरों का बनना दूसरा व्याकुलता की मनःस्थिति का बनना।
रचनाकार भाव-प्रवाह का माध्यम बन रचना करता है। पाठक प्रायः सहज भाव से उस भाव में डूबता है और समीक्षक उसके विविध आयामों की तलाशता है। मानस की विवेचना हर विवेचक अपनी दृष्टि से करता है। सम्भाव्तन स्वयं तुली भी इतने प्रकार से विवेचित नहीं करते रहे होंगे।
'बहु विधि कहहिं सुनहिं सब संता'... आजकल किसी रचना पर ऐसी चर्चा विरल होती है। अतः, यह मंच, पाठक, आप और रचना सभी साधुवाद के पात्र हैं।
प्रथम अन्तरा मिलन से अस्तित्व मिटने और दूसरा अन्तरा मिलन से अस्तित्व समुन्नत होने के ऊपर से विरोधाभासी प्रतीत होते किन्तु मूलतः परिपूरक भावों को इन्गित करते हैं। यहाँ तथ्य और तत्त्व स्पष्टता से अभिव्यक्त हो सके हैं। 'लौ' और 'सविता' का स्त्रीलिंग होना या 'ताम्र' और 'स्वर्ण' का पुल्लिंग होना सायास नहीं प्रतीत हुआ।
'खो कर भी निज सत्ता खुद का / अभिज्ञान सतत रखना संचित' यह रचनाकार द्वारा दी गयी सीख या रचना का उद्देश्य है। 'तांबा सोने में मुस्काता, तरणी क्षारित कहलाती हैं' यह निष्कर्ष पाठक को सोचने के लिए प्रेरित करता है।
सारतः रचनाकार न मिलन की पैरवी करता है न विरोध... वह मिलन के दोनों पक्षों को इंगित कर उनके परिणाम पाठक के सामने परोस देता है। मिलन कब-कहाँ उत्थानपरक है, कहाँ पतनोन्मुख मिलन के पूर्व यह विचारना आवश्यक है। अस्तु...
मेरी बाल-बुद्धि कुछ गलत समझ रही हो तो कृपया, मार्गदर्शन करियेगा।
प्राची कभी कभी रचना किन्ही ख़ास सन्दर्भों से उपजती है ...और लिखने वाला भी उन्ही में उलझा होता है ,पाठक का दृष्टिकोण क्या सामने आने वाला है इसका अंदाज़ा भी नहीं होता ...... इस रचना का आधार नितांत भौतिक है ...... पर मुझे लगता है कुछ अस्पष्ट हो गया ...................
/विराम देना चाहूंगी.. //..
सौरभ जी विराम देने से मेरा तात्पर्य सिर्फ उस समय कही जा रही मेरी बात को विराम देने से था ...आगे मैं चर्चा नहीं चाहती ऐसा मंतव्य न कभी था और न कभी होगा |ये मेरा सौभाग्य है कि आपने इस रचना को इस योग्य समझा कि उस पर बात की जा सके और उससे भी बड़ी बात मुझे इस योग्य माना कि मै आपकी बात को समझ कर इस चर्चा में शामिल हो सकूं
मै जितना आपकी बात ग्रहण कर सकी उसके अनुसार चर्चा करने की कोशिश की है यदि मेरी कही हुयी बात उचित नहीं लगी तो इसका मतलब यह बिलकुल भी नहीं है कि आपकी टिप्पणियों को मै मात्र आलोचना के रूप में ले रही हूँ ...सौरभ जी मुझे सच में इस बात से कष्ट हुआ कि आपने ऐसा माना या सोचा
//सीमाजी, आपकी रचनाएँ वाकई अच्छी होती हैं.// मै कभी भी आपसे सिर्फ इतना नहीं सुनना या जानना चाहती हूँ |न ही स्वयं को इस योग्य मानती हूँ
अब smily please ( यहाँ से आपकी smile तो दिखेगी नहीं इसलिए smiley please )
आदरणीया सीमा जी,
विलय को स्त्री और पुरुष के सन्दर्भ में देखा जाना......? मैंने भी इस दृष्टिकोण से नहीं देखा ....
आपकी रचनाएं शब्दों का सिर्फ मूर्त रूप न हो कर, बहुत गहन होती हैं, इसलिए उन्हें सिर्फ शदों की सतह पर देखा जा ही नहीं सकता. उन्हें एहसास की तरह महसूस किया जा सकता है.
अस्तित्व विलीनता को समर्पण मान आत्मा का परमात्मा में विलीन हो चिदानन्द प्राप्त करने के सापेक्ष ही माना था और उसमें उपजे कुछ विरोधाभासो को व्यावहारिकता की कसौटी पर सही माना था.
स्त्री ? .. पुरुष ? ... .. ??? .. मेरे कहे से मात्र ऐसा प्रतीत हुआ ? या, इस रचना का सीमांकन हो गया ???
- अब बात स्थापित और स्वीकृत बिम्ब और उपमाओं की तो सौरभ जी जब भी कुछ नया विचार सामने आता है झटका तो लगना ही चाहिए |... .. ............. ????
- नए नज़रिए ,नए बिम्ब आने ही चाहिए या पुराने प्रतीकों को नया दृष्टिकोण मिलना चाहिए | .... पुनः ??????
- विराम देना चाहूंगी.. .......
कुछ समझ में नहीं आया, सीमाजी.
और देखिये न, इधर मैं आपकी प्रौढ़, उच्च मानदण्डों की कसौटियों के योग्य प्रस्तुत रचना के माध्यम से -- और इस रचना के आलोक में-- किसी रचना हेतु अक्सर अभिव्यक्त मात्र ’वाह-वाह’, ’बढिया’, ’बेजोड़’, ’कुछ थोड़ा-हाँ’, ’कुछ बहुत-हाँ’ के अलावे रचना-धर्मिता और सन्निहित वैचारिकता पर मुखर परिचर्चा करना चाहता था. ताकि एक दृष्टि और दृश्य बन सके ; मंच पर एक गुरुतर परिपाटी बन सके. जैसा कि एक दफ़ा आदरणीय योगराज भाई और मैंने कुछ अरसे पहले एक तरही मुशायरे में शामिल मेरी एक ग़ज़ल के शेर पर शुरु किया था.
यदि मेरी टिप्पणियाँ मात्र आलोचना लगीं तो क्षमा.. .
सीमाजी, आपकी रचनाएँ वाकई अच्छी होती हैं.
सादर
इस चर्चा को पुनः प्रारंभ करने से पहले मैं दृश्य और दृष्टि को विस्तार देना चाहूंगी क्या किसी भी मिलन या विलय को सिर्फ स्त्री और पुरुष के सन्दर्भ में ही ग्रहण किया जाना चाहिए ये मिलन और विलय किसी भी दो इंसान ,परिस्थिति ,संस्कृति या विचारों का हो सकता है यदि मुझे सिर्फ स्त्री के अस्तित्व से जुडी हुयी बात करनी होती तो मैं ताम्र और कंचन के विलय को उद्धरण नहीं प्रस्तुत करती (दोनों पुल्लिंग हैं )
दूसरी बात यहाँ मैं विलय की अपरिहार्यता की बात भी स्वीकार कर रही हूँ | अब इस अपरिहार्यता में आप स्वयं को खो दें या अनिवार्य हिस्सा बन जाएँ ,यही विचार का बिंदु है |
अब बात स्थापित और स्वीकृत बिम्ब और उपमाओं की तो सौरभ जी जब भी कुछ नया विचार सामने आता है झटका तो लगना ही चाहिए | जो कुछ स्थपित है लम्बे समय से स्वीकृत है वही शाश्वत भी है ऐसा तो नहीं है न ....नए नज़रिए ,नए बिम्ब आने ही चाहिए या पुराने प्रतीकों को नया दृष्टिकोण मिलना चाहिए |
अपनी बात को अपने पिता जी की एक बात के साथ विराम देना चाहूंगी जो वो हम चारों भाई -बहनों से कहा करते थे ..."..."परिस्थिति कैसी भी हो अपनी उपयोगिता और अनिवार्यता साबित करो दूसरों की संतुष्टि से ज्यादा यह बात तुम्हे संतुष्टि देगी "
विवाहोपरांत एक नारी, परिवार के अनुसार ढलने की प्रक्रिया में, कभी कभी इतना खुद को इतना बदल लेती है कि उसका अस्तित्व ही खो जाता है. उसी प्रकार सरिता का सागर में विलुप्त होना, दीपक की लौ का सविता में घुलना- यह समपर्ण के उदाहरण हैं. विशुद्ध समर्पण अहम का बलिदान माँगता है. सच कहा आपने-
"हो विलय ताम्र कंचन के संग
खो जाता कंचन हो जाता
कर सुद्रढ़ सुकोमल स्वर्ण गात
निजता पर प्रमुख बना जाता
तज स्वत्व हेम हित ताम्र ज्योति बन हेम स्वयं मुसकाती है "
सुन्दर और प्रभावी रचना पर बधाई.
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