सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
अस्तित्व स्वयं का तज बोलो
किसने अब तक पाया है सुख
Comment
बहुत सुन्दर मधुरम गीत पढ़कर मन आनंदित हो गया आदरणीया सीमा अग्रवाल जी, सागर में सरिता, मधुर मिलन में (पति- पत्नी) जब एक दूजे में समा जाते, दीपक की लौ दीया में बाति, कंचन धातु में ताम्र जैसे विलय पश्चात अपना अस्तित्व खो (समाहित) कर देते है, कहना चाहिए नौछावर कर देते है,ऐसे और भी उदहारण है जैसे गुरु/इश्वर भक्ति में लीन शिष्य | फिर भी इनका अपना महत्त्व सदा बना रहता है, इनका अपना आदर्श भी सबके सम्मुख रहता है | इसलिए गीत की अंतिम पंक्तिया बहुत ही प्रभाव पूर्ण है :-
बहुत सुन्दर गीत लिखा है सीमा जी स्वेच्छा से किया सम्पूर्ण विलय आंतरिक आलोकिक सुख प्रदान करता है ताम्र स्वर्ण सुख पाता है तो सरिता भी विशालता प्राप्त करती है जहां अहम् हो वहां सम्पूर्ण समर्पण होता ही कहाँ है बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर गीत के लिए
//पर व्यवहार में परिलक्षित भी तो होती है लहर सिर्फ प्रतीक है उस उद्ग्विनता का ...//
अच्छा. अब मैं आपकी रचना के मुखड़े को पुनः लेता हूँ -
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
लहरें बन फिर व्याकुल हो कर तटबंधों से टकराती है.
कृपया देखियेगा, उपरोक्त पंक्ति के माध्यम से आपके विचार स्पष्ट हो पा रहे हैं ?
सीमाजी, जो कुछ मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में साझा किया है, उसे संपूर्णता में देखियेगा. सं गच्छध्वं, सं वदध्वं.. की आवृतियों के बाद वैयक्तिकता, भले कितनी ही अपरिहार्य क्यों न प्रतीत होती हो, शब्द-संप्रेषण के क्रम में ऐसे उदाहरणों के आलोक में देखना, जिन्हें मणिकाञ्चन या अन्योन्याश्रय सम्मिलन के संदर्भ में लिया जाता रहा है, झटके दे गया. कि, क्या ताम्र का स्वर्ण से सम्मिलन, या, नदी का नदीश से सम्मिलन आदि आरोपित बन्धनों के समकक्ष रखा जा सकता है !? ऐसे सम्मिलन के पश्चात भी, ये सब अपनी वैयक्तिकता फिर भी जीते हैं, तो क्या दो वृतों की परिधियों पर परस्पर काट-विन्दु का निर्माण होना अनवरत दुखों का कारण नहीं होगा ?
आदरणीया सीमाजी, उच्च-सम्मिलन की अवधारणा वस्तुतः दो वृतों की प्रच्छन्न इकाइयों और उनकी परिधियों का परस्पर अतिक्रमण के समकक्ष न हो कर संकेन्द्रित वृतों (स्पाइरल सर्किल्स) का परस्पर निर्माण के समकक्ष है. जिसके अंतर्गत किसी वृत की परिधि दूसरे वृत की परिधि पर कोई काट-विन्दु का निर्माण नहीं करती, अपितु सर्वस्वीकार्यता के अंतर्गत एक दूसरे को लगातार समेटती चली जाती है. यह व्यक्तिगत ही सही किन्तु, सम्मिलन की आदर्श अवधारणा है.
सीमाजी, आरोपित साहचर्य सम्मिलन का पर्याय न हो कर समझौते (कम्प्रोमाइज) का प्रारूप होते हैं. और, समझौते का जीवन इस देश-काल के लिये सर्वथा आरोपित अवधारणा है. इस पर फिर कभी.. .
सादर
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है ....................................बहुत सुन्दर शब्द चित्र, आज पूरे रास्ते आपकी इन दो पंक्तियाँ का कई कई भावों और विचारों के साथ मन मस्तिष्क में खेल चलता रहा और कब कॉलेज आ गया पता ही नहीं चला.
अस्तित्व स्वयं का तज बोलो किसने अब तक पाया है सुख .......................यह सही भी है और नहीं भी, अस्तित्व को पूर्णतः विलीन कर देना ही चिदानंद का मार्ग है, पर जब तक 'मैं' जीवित है ये अस्तित्व स्वयं को विलीन होने ही नहीं देता. दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि यदि अस्तित्व को स्वेच्छा से विलीन होने दिया जाए तो यह आनंदकर होता है, और यदि आरोपित बाध्यता हो तो यह एक तड़प बन जाता है.
आदरणीय सौरभ जी रचना के माध्यम से दो समान परिस्थितियों के भिन्न परिणामो को बताने कि कोशिश की है जिसे अंतिम बंद के माध्यम से स्पष्ट करने कि कोशिश भी की है आपका प्रश्न शायद इन पंक्तियों के सन्दर्भ में है
'लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है'
//व्याकुलता हृदय-मस्तिष्क में व्याप जाया करती है//
सौरभ जी व्याकुलता भले ही ह्रदय और मस्तिष्क में व्यापती है पर व्यवहार में परिलक्षित भी तो होती है लहर सिर्फ प्रतीक है उस उद्ग्विनता का ......
बात अपरिहार्य परिस्थितियों की है जो किसी के भी जीवन में यदा-कदा आतीं ही रहतीं हैं एक ऐसी स्थिति जहां आपके समक्ष जो उसमे और आपमे किसी भी गुण धर्म का अंतर विशाल हो ........ऐसे में स्वयं को स्थापित रखना एक चुनौती होती है जो इसे दृढ़ता से स्वीकारता है वो सफल होता है अन्यथा निजता खोने की व्याकुलता ...........
सीमाजी, ऐसा ?.. .
वैयक्तिकता तथा वैयक्तिक अवधारणाओं के मध्य अंतर स्पष्ट हों तो ऐसी सोच को जीना.. ?!!..
एक समय के बाद, सीमाजी, प्रस्तुतियों में शाब्दिकता या गठन मात्र नहीं विचारों का संप्रेषण देखना समीचीन हुआ करता है. ऐसा हमेशा तो नहीं परन्तु, कई संदर्भों में. उस हिसाब से संघुलन हेतु हेय आयाम का तय होना असहज कर गया. आपसे अब इतना कुछ स्पष्ट रूप से साझा करने की सात्विकता तो है ही.
व्याकुलता हृदय-मस्तिष्क में व्याप जाया करती है. इस व्यापने के लिये ’बनना’ क्रिया उचित होगी क्या?
रचना पर विशेष नहीं कहूँगा. भाव-संप्रेषण हेतु उच्च मानदण्ड आपका सदा से यूएसपी रहा है. यह रचना भी अलग नहीं है. हार्दिक बधाई.
सादर
वाह वाह वाह-
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
दरिया का तो सागर में डूब के काम हो गया, अब सागर की समस्या है कि वो लहरों पे काबू रखे और उनकी निगहबानी करे. खूबसूरत रचना पे बधाई हो आदरणीया सीमा जी!
आदरणीया सीमा जी आपकी परिकल्पना आपकी सोच पर आशचर्य चकित हो जाता हूँ
आपके द्वारा उद्धृत शब्द आपकी साहित्य प्रवीणता को परिलक्षित करती है
माँ सरस्वती की आपार कृपा है
गिरवी स्वप्नों की रजनी का
चमकीला हो कैसे आमुख
आपको पढ़ हम धन्य हो रहे हैं
ह्रदय से बधाई
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