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तरसते अम्बर धरती (कुण्डलिया छंद )

धरती अम्बर से कहे ,सुना प्रेम के गीत 

अम्बर धरती से कहे, दिवस गए वो बीत 

दिवस गए वो बीत ,मुझे कुछ दे न दिखाई 

 कोलाहल के  बीच,तुझे  देगा न सुनाई 

जन करनी के  दंड, अभागिन प्रकृति भरती   

किस विध मिलना होय ,तरसते अम्बर धरती

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 24, 2012 at 10:07am

आपके कोमल खूबसूरत विचार भाव जब छंद का सधा आवरण पहन निस्सृत होते हैं तो मन मुग्ध हो जाता है. 

धरा अम्बर प्रेम को तरसते....बहुत सुन्दर कुण्डलिया. ह्रदय से बधाई आदरणीया राजेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 23, 2012 at 5:40pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपकी इस प्रतिक्रिया से मेरी लेखनी को संबल मिला और आपने जो त्रुटी पकड़ी जो बिलकुल सही पकड़ी  है उसके लिए आभारी हूँ उसे अभी सही कर लेती हूँ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 23, 2012 at 5:26pm

आदरणीया राजेशजी, आपकी इस रचना की संवेदनशीलता मुग्धकारी है. बिम्ब और कथ्य दोनों संतुलन में हैं. आपके रचना-कर्म में हुए सकारात्मक परिवर्तन को यह मंच गर्व से स्वीकारता है. सादर बधाई.

एक बात :

कोलाहल के  बीच,तुझे न देगा सुनाई   =  कोलाहल के  बीच,  तुझे देगा न सुनाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 23, 2012 at 4:52pm

हार्दिक आभार अखिलेश जी 

Comment by akhilesh mishra on November 23, 2012 at 3:33pm

अति सुंदर ।मैडम बधाई स्वीकारें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 23, 2012 at 2:47pm

         बहुत बहुत आभार शालिनी जी कुण्डलिया के मर्म का अनुमोदन  करने हेतु 

Comment by shalini kaushik on November 23, 2012 at 2:42pm
sahi kaha hai rajesh ji aapne ambar aur dharti jan karni ke dand hi bhugat rahe hain .

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