देखा है
क्रूर वक़्त को,
पैने पंजों से नोचते
कोमल फूलों की मासूमियत
और बिलखते बिलखते
फूलों का बनते जाना पत्थर,
देखा है
पत्थर को गुपचुप रोते
फिर कोमलता पाने को
फूल सा खिल जाने को
मुस्काने को, खिलखिलाने को,
देखा है
अटूट पत्थर का
फूल बन जाना
फिर कोमलता पाना
महकना, मुस्काना, इतराना,
देखा है
सब कुछ बदलते
आकाश से पाताल तक
फिर भी मैं वही हूँ सर्वदा....
न फूल, न पत्थर, न कारण
मात्र दृष्टा,
सब कुछ बदलते जाने का.
Comment
आदरणीया प्राची जी:
आज आपकी यह उत्कृष्ट रचना पुन: पढ़ी,
लगा कि इसमें उपनिष्दों का सार पढ़ा।
इसे लिखने के लिए धन्यवाद!
विजय
आदरणीय सौरभ जी, रचना के कथ्य को अनुमोदित करने के लिए आपका हार्दिक आभार.
वाह ! बहुत सुन्दर !!!
खेद है, यह रचना आज देख पाया ! .. . अति उच्च कथ्य का सार्थक प्रस्तुतिकरण हुआ है.
हार्दिक बधाई. .
इस अभिव्यक्ति को सराह कर प्रोत्साहित करने के लिए आ. विजय निकोर जी, प्रदीप कुशवाहा जी, शालिनी कौशिक जी, अशोक कुमार रक्ताले जी, चंद्रेश कुमार जी, और लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी, आप सबकी ह्रदय से आभारी हूँ, सादर.
प्राची जी,
दार्शनिक्ता से भरपूर इस सुन्दर रचना के लिए बधाई।
विजय निकोर
देखा है
सब कुछ बदलते
आकाश से पाताल तक
फिर भी मैं वही हूँ सर्वदा....
न फूल, न पत्थर, न कारण
मात्र दृष्टा,
सब कुछ बदलते जाने का.
सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई,
आदरणीय प्राची जी, सादर
sundar bhavpoorn prastuti
आदरेया प्राची जी
सादर, बहुत सुन्दर द्विभाव प्रस्तुत करती रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बहुत उम्दा डा. प्राची सिंह जी, जितना कुछ इस कविता ने देखा है, वो सब कुछ देखा है जीवन में|
फूलों से पत्थर - पत्थर के आन्सू और फिर पत्थर से फूल| और जो ना बदला है वो है द्रष्टा, जो अकर्ता - निर्विकार है|
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