“हैलो क्षिप्रा, कैसी हो? मैं निशा बोल रही हूँ, मॉडर्न स्कूल की प्रिंसिपल! आज सभी स्कूलों के लिए आयोजित पोस्टर कम्पीटीशन में तुम जज हो न?”
ओहो! निशा! कैसी हो? कितने समय बाद याद किया? क्या तुम भी आ रही हो?क्षिप्रा नें पूछा.
“मेरे स्कूल के बच्चे प्रतिभागिता कर रहे हैं , बच्चों को मोटिवेट करने के लिए आना तो चाहती हूँ, पर मेरे स्कूल में भी एक समारोह है, अब देखो! अच्छा तुम कितने बजे तक पहुँचोगी?”निशा नें पूछा .
“मैं ग्यारह बजे तक पहुचूंगी, आ सको तो आना, मिलते हैं फिर.” क्षिप्रा बोली.
क्षिप्रा आयोजन स्थल में पहुचती है.
बच्चे रंग कूची कलम लेकर लगे है पूरी तन्मयता के साथ प्रदत्त विषय सन्निहित सतरंगी भावों को कोरे कागज पर उकेर देने के लिए. एक से बढ़ कर एक पोस्टर, किसी के भाव बेहतरीन तो किसी के रंग, किसी का सन्देश सुप्त विचारों को जगाता हुआ, तो कोई यथार्थता का सत्य बिम्ब. बच्चों की सोच कागज में कितने सच्चे खूबसूरत रंग ले कर उतरी थी, बस देखते ही बनता था, हर चित्र पर बस वाह!
छोटे बच्चों की अलग कैटेगरी- नन्हे नन्हे हाथ रंगीन मासूम सपनों की तितलियाँ कोरे कागज़ पर सजाते हुए . जीत हार की होड़ नहीं, बस पूरी लगन ,जोश, तन्मयता से रंगों की दुनिया में लीन,रंगों से बाते करते, सपनों से खेलते , निष्प्राण कागज़ में पूरी निष्ठा से विषयजन्य प्राण फूंकते.
क्षिप्रा का मोबाईल फिर बजा!
“हाँ! क्षिप्रा, तुम पहुँच गयी “
“हाँ!, मैं अन्दर ही हूँ निशा, तुम भी आ गयी क्या?”
“नहीं मैं तो नही आ पायी, पर मेरे स्कूल का एक बच्चा है, अरुण, बहुत प्रतिभाशाली है,उसने भाग लिया है, पता नहीं प्रतियोगिता में कैसा करे, पर है बहुत टैलेंटेड. तुम ज़रा देख ज़रूर लेना, ठीक है” निशा ने कहा.
क्षिप्रा मुस्कुराई, और बच्चों के पोस्टरों की तरफ देख कर सोचा, शुक्र है, बच्चो के नाम और उनके स्कूल के नाम पोस्टर के पीछे लिखे हैं, और मैं उन्हें देख नहीं सकती.....और कागज़ कलम ले कर आगे बढ़ गयी,रंगों की सच्ची भाषा को आंकने.
Comment
आदरणीय प्राची दी, प्रतिभा तो पिट ही रही है ! ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों की परीक्षा में(बोर्ड की भी) परीक्षा कक्ष में खुले तौर पर 'व्यवस्था-शुल्क' की मांग, तो इसका स्पष्ट प्रमाण है ! बहुत ही सुन्दर भाव का निर्वहन करती इस लघुकथा हेतु आपको सादर बधाई !
अंत बेहद भला लगा
आमतौर पर लघुकथा में कटाक्ष का बोलबाला रहता है और शायद कटाक्ष को ही केन्द्र में रख कर लिखने लगे हैं
आप अंत इस तरह भी कर सकती थीं कि -
// क्षिप्रा मुस्कुराई, और बच्चों के पोस्टरों की तरफ देखने लगी मगर अब उसकी नज़र उन रंगों के बीच अरुण का नाम खोज रही थीं //
मगर आपने जिस सकारात्मक ढंग से कथा को समाप्त किया है उसके लिए विशेष बधाई स्वीकारें
बेहद शानदार
विरले ही अब शेष हैं,जो हैं सच के साथ
अनुशंसा में दौर में , प्रतिभा पीटे माथ ||
लघुकथा में गर्भित संदेश निर्णायकों तक पहुँचे तो रंगों की सच्ची भाषा का निष्पक्ष मूल्यांकन हो. हमारी शुभकामना है ||
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लादीवाला जी,
आप ऐसी परिस्थिति से गुज़रे... आपकी किंकर्तव्यविमूढ़ता नें आपको प्रोत्साहन पुरूस्कार देने पर विवश किया, यह साझा करने के लिए आपका सादर आभार.
इस लघुकथा निहित सन्देश आपको पसंद आया इस हेतु आभार आदरणीय प्रदीप कुमार कुशवाहा जी
इस लघुकथा के भाव आपको पसंद आये, इस हेतु आपकी आभारी हूँ आदरणीय चंद्रेश कुमार जी.
प्रतिभा की पहचान कहीं नाम से न हो, इसलिए नाम को छिपाना पड़ा..... सिफारिश, फेवरेटिस्म, भेदभाव इतनी छोटी छोटी प्रतियोगिताओं में पैठ बना लेते हैं की आयोजकों को भी सावधान रहना ही चाहिए, प्रतियोगीता के निर्णय की विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए. सादर.
आदरणीय अशोक जी, सादर धन्यवाद इस लघुकथा को पसंद करने के लिए !
आपने सही कहा,अक्सर परिस्थिति जन्य मूल्यों की ऐसी परीक्षाओं में परीक्षक के फेल होने के साथ प्रतिभा भी हार जाती है.
आदरणीया प्राची जी, सादर
सुन्दर लघु कथा. सार्थक सन्देश. वर्तमान व्यवस्था. कुत्सित मानसिकता.
बधाई
कितनी विडम्बना है, सच को तस्वीरों के पीछे छुपा कर रखना पड़ता है, क्योंकि कहीं सच को झूठ ना बना दिया जाए| डा. प्राची जी,बहुत ही सुन्दर तरीके से भावों को उभारा है और प्रेरणा दी है | आपको बहुत बधाई |
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