मुझे थोड़ा बुरा तो लगा जब उसकी थाली में खाना परोसते वक़्त उसने मुझसे पूछा
- ये चिकन किस दूकान से खरीदा था तुमने?
- वही पिकाडेली सर्कस स्टेशन के बाहर निकलते ही सीधे हाथ पर जो शॉप है ना, वहीं से
- ओत्तेरे की! यार मुझे कुछ वेज हो तो खाने को दे दो, वो स्साला गोरा हलाल मीट नहीं बेचता और तुम जानते ही हो कि मैं हराम नहीं खा सकता..
खैर कैसे भी मैंने जल्द-फल्द उसके लिए आलू-मटर की सब्जी तैयार कर दी थी। लेकिन अगले दिन जब ऑफिस में बॉस के गैरहाजिर होने पर उसे कम्प्युटर पर ताश का कोई गेम खेलते देखा तो पिछली रात को उसका बताया गया उसूल मैंने उसे याद दिला दिया। वो अगला-पिछला सब भूल हाथापाई पर कुछ यूं उतरा कि मेरी नज़र से उतर गया। तब से न वो मेरी सुनना पसंद करता है और न मैं उसे कुछ कहना।
दीपक मशाल
Comment
शुक्रिया बागी भाई एवं सौरभ भाई साब।
लघुकथा के सत्य को स्वीकारने के लिए धन्यवाद अजीतेंदु, प्राची जी, अजय जी, लक्ष्मण जी, सीमा जी एवं सुमन जी।
यह बड़ी आम बात हो गई है प्रदीप जी। शुक्रिया
हलाल और हराम को अपनी सुविधा के अनुसार परिभाषित करती वैचारिकता और इस तरह के मनस पर अच्छा प्रहार है. संवाद प्रक्रिया की अनूठी शैली की लघुकथा के लिए बधाई.
दोहरे चरित्र को उजागर करती एक अच्छी लघु कथा , बहुत बहुत बधाई भाई दीपक मशाल जी ।
bahut achhee lagee mujhe ye katha,,,,
अच्छा सन्देश देती सटीक लघु कथा बधाई
शब्दों और उसके अर्थों को सुविधानुसार जीते दोहरे चरित्रों पर सटीक कटाक्ष ....बधाई दीपक जी
bahut umda bakaya sunaya aapne badhai
deepak ji ajkal darpan dikhana kisi apradh se kam nahi hota koi dekhna pasand nahi karta
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