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लघुकथा: अधार्मिक

देश के प्रतिष्ठित सरकारी हस्पतालों में से एक में गर्मियों की दोपहर को डॉक्टरों के विश्राम कक्ष में बैठकर लस्सी पीते हुए, वे चारों डॉक्टर आपस में देश-दुनिया की 'गंभीर' चर्चा में लगे हुए थे। अचानक उनमे से एक की नज़र अपनी कलाई घड़ी पर घूम गई, जिसकी सुइयां उनके लिए निर्धारित विश्राम के समय से कुछ ज्यादा ही आगे घूम गईं थीं। उसने हड़बड़ाते हुए अपनी कुर्सी छोड़ी और बाकी के साथियों को घड़ी की तरफ इशारा करते हुए बोला-
- जरा टाइम देखो डियर, तुम लोगों का भी राउंड का वक़्त हो गया है।
- अबे बैठ जा आराम से यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, हमें तीन साल हो गए यहाँ, यहाँ के सिस्टम की नस-नस मालूम है।
पर उस नए डॉक्टर को जल्दी हार नहीं माननी थी
- पर यार कुछ तो ईमानदारी रखो, क्यों भूल जाते हो कि चिकित्सा हमारा पेशा ही नहीं धर्म भी है।
- ओ हरिश्चंदर की औलाद, बैठ जा चुप्पी साध के धर्म होगा तेरा... हम तो नास्तिक लोग हैं।
और कमरे में तीन दिशाओं से निकले ठहाकों के स्वर गूँज पड़े।

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Comment by MAHIMA SHREE on December 27, 2012 at 3:47pm

समाज का एक चेहरा ऐसा भी है इसमें कोई शक नहीं .... बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति दीपक जी बधाई आपको

Comment by Shubhranshu Pandey on December 27, 2012 at 9:20am

नये रंगरुट को एक पुराने खुर्राट की सलाह......मानना या न मानना रंगरुट पर निर्भर करता है...

तभी तो कमरे का एक कोना उनकी हँसी में साथ नहीं दे पाया...एक अच्छी कथा..सादर.

Comment by satish mapatpuri on December 27, 2012 at 2:01am

बहुत खूब दीपक साहेब , गंभीर व्यंग किया है आपने इस लघु कथा के माध्यम से ..... बधाई .


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 26, 2012 at 9:23pm

क्या संयोग है, एक ही कथा के दो पहलू .....अभी अभी "अपना पराया" लघुकथा पढ़ी, कैसे अपने कर्त्तव्य के प्रति एक डॉ सजग है और कुछ लोग बिलकुल लापरवाह, अच्छी कथा, बधाई स्वीकार हो |

Comment by seema agrawal on December 26, 2012 at 7:50pm

चिकित्सा जैसे पावन शब्द के साथ खेलती मानसिकता  के लिए क्या कहा जा सकता ......सत्य को दर्शाती सुगठित लघु कथा के लिए बधाई दीपक जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 26, 2012 at 4:34pm

अपनी ईमानदारी की जवाबदेही क्या किसी और से है, या हमारी स्वयं की अंतरात्मा से.....

जिनकी अंतरात्मा ही सुप्त हो उनसे क्या कहा सुना जाए,तदजनित संवेदनहीनता को परिलक्षित होते देखना आज आम है, ऐसी ही संवेदनहीनता को इंगित करती इस लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय दीपक जी 

Comment by vijay nikore on December 26, 2012 at 4:30pm

लघुकथा के माध्यम यह दर्दनाक अवस्था सामने लाने के लिए धन्य्वाद।

विजय निकोर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 26, 2012 at 4:23pm

कम से कम चिकित्सक को तो संवेदन शील होने का पाठ पढाया जाना चाहिए । दरअसल हमारे यहाँ अब नैतिक शिक्षा और संस्कर्रों की कमी इस समाश्या के मूल में है । सरकार और समाज दायित्व निर्वाह नहीं कर रहे । सामयिक समाश्या पर ध्यान आकर्षित किया है बधाई 

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 26, 2012 at 1:23pm

दीपक जी लघुकथा पढ़कर मानो यूँ प्रतीत हुआ की मैं उसी अस्पताल में खड़ा होकर ये सब बातें सुन रहा हूँ, जहाँ ये बातें हो रही हैं, हकीकत को यथार्थ करती सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 26, 2012 at 1:09pm

एक हकीकत या कहें आम मंजर को कलमबद्ध किया जाना भला लगा. संवेदनहीनता की स्थिति वाकई चिंताजनक है. बधाई.

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