एक फसली जमीन को
तीन फसली करने का हुनर.....
धर्म के अंकुश तले
आकुल उड़ान की कला......
अभिशप्त़ कामनाओं को
ममी बनाने का शिल्प.......
कहां जानता है
एक अदना सा आदमी ?
वह जानता है
ताप, पसीना, थकान
विषाद, उत्पीड़न
और उससे उपजी
तटस्थता
जिसको उसने नहीं चुना,
वह जानता है
टीस, चुभन, दर्द, मरण
और इन्हें समेटकर
हो जाता है एकदिन
छंदमय, मनोमय
चाहिए सहारा उसे
वृषभ कंधों,
सबल हाथों का
ताकि
वह भी हो सके
छंदमुक्त, निर्बंध
अरुप, आकंठ
राजेश कुमार झा (मौलिक रचना)
Comment
आदरणीय राजेश झा जी,
आपकी रचना का भाव कथ्य प्रवाह सब बेहद सुन्दर है, शब्द भी अभिव्यक्ति में संयत हैं.
पर
टीस, चुभन, दर्द, मरण
और इन्हें समेटकर
हो जाता है एकदिन
छंदमय, मनोमय.....इस पर मेरी सहमति नहीं बन पा रही है. कुछ भी कह ले, पर छंदमय होना तो सुर, लय, ताल, भाव, अलंकार सबका एक मुग्धकारी संयोजन होता है अब हम इसे दर्द चुभन तीस मरण के दमघोंट देने वाले बंधन का बिम्ब कैसे स्वीकार करें.
शुभेच्छा.
आदरणीय राजेश कुमार झा जी सादर, सुन्दर रचना मेहनतकश सरल चरित्र इंसान को कहाँ भाग्य की आस. मगर जब भाग्य साथ हो तो फिर क्या बात. बधाई.
एक साधारण आदमी एक छोटा किसान कहाँ ऊँची उड़ान भर सकता है ,इस जीवन अंतर को क्या ख़ूबसूरती से शब्दबद्ध किया है आपने छंद बद्ध और छंद मुक्तता का बिम्ब बखूबी प्रयोग किया बहुत बधाई इस मौलिक रचना हेतु
पंक्ति-पंक्ति रसती जाती है, मगर आप्लावित होने के स्थान पर मन बिंधता जाता है. अकुशल जन की विवशता और वेदना को खूब पकड़ा है आपने, भाई राजेश जी. सर्वोपरि, अकुशल जन को छंदमय और कुशल जन को छंदमुक्त संज्ञा से इंगित किया जाना एकदम से चौंका गया. आपकी प्रयोगधर्मिता कमाल है. सही है अकुशल का विवश हो बंध कर जीना और कौशल्य का उन्मुक्त और निर्बंध जीना समझ में भी आता है.
देख रहा हूँ, आपकी लगभग हर रचना कुछ न कुछ विशेष बोल जाया करती है.. और हम जैसे पाठक देर तक उसकी अनुगूँज से झंकृत और रोमांचित रहते हैं.
बधाई इस ’छंदमुक्तता’ के लिए.. .
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