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आज सुबह उठ कर घर का काम निपटाया बेटे को स्कूल भेज दिया | पतिदेव की तबियत कुछ ठीक नही तो वो अभी सो ही रहे थे |मैंने अपनी चाय ली और किचेन के दरवाजे पर ही बैठ गई कारण ये था कि आज आँगन में बहुत दिनों बाद कुछ गौरैया आयी थीं वो चहकते हुए इधर उधर फुदक रही थीं और मैं नही चाहती थी कि वो मेरी वजह से उड़ जाएँ | तो मैं वहीँ बैठ के उनको देखते हुएचाय पीने लगी | थोड़ी देर बाद गोरैया तो उड़ गईं पर मैं वहीं बैठी रही चुपचाप | ना जाने कैसे अचानक से पापा का ख्याल आ गया|

उनका ख्याल आते ही दो बूँद आँसू आँखों से निकल कर मेरे गालों पर लुढक आये और मैं अपने पापा के साथ अपने बचपन में चली गयी |सभी बच्चों मे कुछ ना कुछ बुरी आदत होती है मुझ मे भी थी | जब मैं कक्षा ६ में पढ़ती थी तो मुझे पैसे चुराने की बुरी आदत हो गई थी | मैं रोज तैयार हो के बैग पीठ पर लादती और पापा की पैंट की जेब में हाथ डाल कर जो भी फुटकर पैसे होते २५ , ५० या
१ रुपया निकल लेती और स्कूल चली जाती | उस समय पापा नहा रहे होते थे और मम्मी पूजा कर रही होती थीं इस लिए मेरा काम आसानी से हो जाता था | स्कूल में मैं उन पैसों से चूरन की मीठी गोलियाँ , कैथा , खट्टा - मीठा चूरन और इमली खरीदती और मजे से खाती |
कुछ दिनों तक तो ये सब बड़े आरम से चलता रहा | मजे की बात ये थी कि मुझे जरा भी एहसास नही था कि मैं कोई गलत काम कर रही हूँ ना ही मुझे ये लगता कि पापा कभी ये सब जान पायेंगें | कुछ दिनों तक ये सब बड़े आराम से चलता रहा |एक दिन ऐसे ही मैं तैयार हो कर स्कूल के लिए निकलने लगी | मम्मी पूजा कर रहीं थीं उनके ठीक पीछे दिवाल पर खूँटी थी और पापा की पैंट उसी पर टंगी थी रोज की तरह | पापा नहा रहे थे | मैंने धीरे से पापा की जेब में हाथ डाला कुछ सिक्के मेरी मुट्ठी में आ गये मैं हाथ बाहर निकलने ही वाली थी कि पापा बाथरूम से निकल के बहार आ गये थे |

मैं जहाँ खड़ी थी वहाँ से बाथरूम का दरवाजा साफ दिखाई देता था | तो अब मैं और पापा एक दूसरे के आमने सामने थे और हक्के - बक्के देख रहे थे एक दूसरे को |
मेरा एक हाथ पापा के पैंट की जेब में ही था | मेरी इतनी हिम्मत नही थी की मैं अपना हाथ जल्दी से बहार निकाल लूँ |फिर क्या ... पापा सारा माजरा समझ कर बोले -- अच्छा तो तुम ही हो जो मेरी जेब से पैसे गायब करती हो , रुको अभी बताता हूँ, इतनी गन्दी आदत तुम्हारे अन्दर कहा से आई , मैं भी कहूँ कि मेरी जेब के फुटकर पैसे कहाँ गायब हो जाते हैं , रोज परेशान होता हूँ की कहाँ खर्च दिए मैंने, (शायद पापा को बहुत जोर की गुस्सा आई थी मुझ पर ) पापा बड़बड़ाते जा रहे थे और कुछ इधर -उधर ढूंड भी रहे थे | मैं वही जड़ हो के खड़ी थी | अन्दर ही अन्दर थर - थर काँप रही थी | मम्मी भी सब समझ चुकी थीं |
बार-बार सिर घुमा के मुझे कड़ी नजरों से देख रही थीं | पापा को एक पतली सी छड़ी मिल गयी थी | मेरे पास आ कर उन्होंने मेरे उपर छड़ी उठाई और पूछा "फिर करोगी ऐसा".....
मैंने डर के मारे आँखे बंद कर ली और बोली -- "नही" और आँखे बंद किये किये ही छड़ी पड़ने का इन्तजार करने लगी |
थोड़ी देर बाद मैंने अपनी आँखे खोली तो देखा कि पापा उदास बैठे हुए हैं और छड़ी ज़मीन पर पड़ी है | अब मुझे लगा कि मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है | पर उस समय पापा से कुछ बोलने की हिम्मत नही जुटा पा रही थी | चुप-चाप वही खड़ी रही , थोड़ी देर बाद पापा ही बोले ......-- आज के बाद मैं तुमसे बात नही करूँगा तुम ऐसा करोगी मुझे उम्मीद नही थी ..मुझे लगा कि पापा मुझे दो चार छड़ी मार देते तो ज्यादा अच्छा था | मैं उन से बोले बिना कैसे रह पाऊँगी | उस दिन स्कूल नही गई मैं |
किसी तरह दो दिन बीत गया | मुझे कुछ भी अच्छा नही लग रहा था | पापा भी गुमसुम थे |मैंने पापा को दुःख पहुँचाया था | अपनी गलती का एहसास हो गया था मुझे | ऐसा लग रहा था कि पापा मुझे जी भर के डांट लेते,दो चार छड़ी भी लगा देते पर यूँ चुप ना रहते मुझसे |
ये सजा मेरे लिए असहनीय हो रही थी | इसी तरह तीसरा दिन भी बीत गया | पापा की चुप्पी मुझसे सहन नही हो रही थी |चौथे दिन मुझसे रहा नही गया | मैं डरते-डरते पापा के पास गई और बोली ..सॉरी ....
पापा ने मेरी तरफ देखा ,सॉरी पापा ... मैंने अपने दोनों कान पकड़ लिए और रोते हुए बोली ..
आगे से ऐसा कभी नही होगा पापा ....
पापा बोले -- प्रोमिस
मैंने कान पकड़े पकड़े ही सिर हिला कर हामी भर दी |
मेरे सिर हिलाते ही पापा ने मुझे अपने सीने से लगा लिया और प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझे समझाने लगे .... "आगे से कभी ऐसी गलती मत करना,चोरी करना बहुत बुरी बात होती है,तुम्हे पैसे की जरुरत हो तो मुझसे मांगो" और भी ना जाने क्या क्या ...
पापा ने मुझे माफ़ कर दिया था | मेरे उपर से टनों बोझ उतर गया था | उनके सीने से लग के जिस सुकून की अनुभूति मुझे हुई थी वो शब्दों में बयान नही कर सकती |पापा की दी हुई सजा का असर मुझ पर ऐसा पड़ा कि आज तक मैंने वो गलती दोबारा नही दोहराई यहाँ तक कि पतिदेव की जेब में भी कभी हाथ नही डालती | उनकी जेब में गलती से कुछ नोट या सिक्के रह भी गये तो वो कपड़ो के साथ ही धुल जाते हैं | पता नही ये उनकी चुप्पी का असर है या मेरे उपर उठाई गई छड़ी का डर जो कभी पड़ी नही थी मुझे |
पापा का वो स्पर्श मुझे बहुत याद आ रहा है आज | आँसू रुकने का नाम नही ले रहे हैं | बहुत कोशिश के बाद भी अपनी हिचकियाँ नही रोक पायी और मेरे मुंह से निकल पड़ा "मिस्स यू पापा ....... अब भी मुझमे बहुत सी कमियाँ हैं" | काश कि एक बार फिर...................
रीना .........पतिदेव जाग गये थे और आवाज दे रहे थे मुझे | मैंने आँसू पोंछा फिर मुंह धोया | थोड़ा अपने को संयत किया तब तक
दोबारा आवाज आ गयी -- रीना...... अब पापा का साथ छूट चुका था | मैं पतिदेव के कमरे की तरफ बढ़ गई |

चित्र ..गूगल

मीना पाठक 

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Comment

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Comment by Meena Pathak on February 7, 2013 at 4:07pm

आदरणीय अशोक कुमार जी सादर नमस्कार,सच कहा आप ने आँखे नम हुए बिना नही रहतीं .. सराहने के लिए बहुत बहुत आभार

Comment by upasna siag on February 7, 2013 at 4:00pm

बहुत बढ़िया मीना जी .... मार से ज्यादा चुप रह कर जो पिता  जी ने सजा दी वही जीवन भर के लिए सबक बन गया 

Comment by Ashok Kumar Raktale on February 3, 2013 at 10:29pm

आदरणीया मीना पाठक जी सादर,सीख के लिए छड़ी की मार की कोई जरूरत नहीं सिर्फ डर ही काफी है.बहुत बढ़िया प्रस्तुति सभी को बचपन में ऐसे पलों से दो चार होना पडा है कारण चाहे जो रहा हो.मगर जब यादें आती है तो आँखे भी नम करती ही हैं.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 3, 2013 at 6:43am

पापा का होना या न होना हमारे स्वयं के पापा हो जाने से कम्पन्सेटेड क्यों नहीं हो पाता ?.. शायद, कि, हम अपने पापा नहीं हुआ करते, और उस छड़ी वाले पापा को अपने व्योम में ज़िन्दग़ी भर ढूँढते फिरते हैं.. जिसकी छड़ी अक्सर पड़ा नहीं करती थी.. . लेकिन हमारे वज़ूद पर बहुत कुछ छोड़ जाया करती थी, फिर कभी न मिटने के लिए.. . 

जिस भाव-प्रवणता से आपने आप-बीती को साझा किया है वह मन के तंतुओं को नरम कर देता है, मीनाजी.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 2, 2013 at 9:13pm

आपके साथ हम भी बचपन में पंहुच गए अपने संस्मरण के माध्यम से बहुत बड़ी सीख दी है आपने, वक़्त रहते अपने बच्चों को सही राह  दिखाना हम माता  पिता का फर्ज होता है,हार्दिक बधाई आपको मीना जी इस कहानी /संस्मरण हेतु  

Comment by रौशन जसवाल विक्षिप्‍त on February 2, 2013 at 9:08pm

सुन्‍दर 

Comment by vijay nikore on February 2, 2013 at 2:56pm

अच्छी स्मृतियाँ लिखी हैं... हम जो भे बनते हैं, सभी इन्हीं अनुभवों के माध्यम

ही बनते हैं।

बधाई।

विजय निकोर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 2, 2013 at 12:01pm
संमरण जो मन में स्थायी रूप ले लेते है, जब तब अनायास ही स्मरण हो आते है, उसे कहानी के रूप में 
अच्छा लिखा है, बधाई मीना पाठक जी 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 2, 2013 at 9:58am

आदरणीया मीना जी,

संस्मरण को कथा के रूप में बहुत सुन्दर तरह से पेश किया है आपने..

वास्तव में ज़िंदगी के ये छोटे छोटे वाकिये ही सबसे ज्यादा मायने रहते हैं.. यही एक इंसान के चरित्र निर्माण की आधारशिला कब और कसे बन जाते हैं, पता अही नहीं चलता.

यह अभिव्यक्ति सचमुच पसंद आयी, इस हेतु आपको हार्दिक शुभकामनाएँ 

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