तुम्हारी झुकी पलकें जो देखी
तो शृंगार रस में डुबोकर तूलिका,
मन में कोई छवि बना ली
कि यकायक तुमने पलकें उठा ली ,
भाव बदला, रस बदला
आंखों में सुर्ख डोरों को देख
तूलिका का रंग बदला
सब समझ गया मैं रुप का पुजारी
जिसके अंग-अंग पर तूलिका चलती थी
तू नहीं रही अब वो नारी
नही बचा तुझमें स्पंदन
हंत ! व्यथित है चित्रकारी
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Comment
प्रिय संदीप आप को रचना के मर्म ने छुआ ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से मेरी लेखनी को नव ऊर्जा प्राप्त हुई दिल से आभार
क्या बात है क्या ही कलाकारी है
जो भाव भंगिमा उकेरी है शब्दों से गहरी है
कल और आज की तस्वीर यही है
जिसे समझना है समझे नहीं तो चित्रकारी तो हो चुकी है
बधाई हो
राजेश कुमार झा जी आपको रचना के मर्म ने छुआ दिल से आभारी हूँ
उफ !!!!!! इतने सघन भाव, बहुत बधाई आपको इस बेहतरीन प्रस्तुति पर, सादर
हार्दिक आभार आदरणीय गणेश जी मेरी रचना के भावों को आत्मासात कर अपने अनुमोदन से मेरे लेखन को सार्थकता प्रदान की दिल से आभारी हूँ
//यदि वही चित्रकार उस बदले हुए रुप के मूल तक जाए उसमें वही विश्वास वही आकर्षण वही प्रेम फिर से अंकुरित करे तो निःसंदेह उसको वही भाव वही स्वरूप नजर आयेंगे उसके प्रतिमान में ,//
यही किसी रचनाकार की शब्द साधना है, आदरणीया. यही साधना किसी भावुक को संप्रेषणीय करते हैं.
शब्द, शब्दों का क्रम, शब्दों में निहित भाव, भावों से निर्मित एक खुबसूरत कृति, वाह वाह, बहुत खूब, शानदार अभिव्यक्ति आदरणीया, बधाई स्वीकार करें |
हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी मेरे शब्द भावों में मूल तक प्रवेश करने के लिए और मर्म तक पँहुचने के लिए| सही कहा चित्रकार जिस खूबसूरती पर अपनी तूलिका चलाना चाहता है उसको उसका रुप बदलना खल जाता है वो आहत होता है जैसे किकभी कभी किसी लेखक के शब्द रूठ जाते हैं जिस तरह चाहता है वो अपने भाव ढाल नही पाता तो छटपटाहट होती है,पर क्यूँ?? यदि वही चित्रकार उस बदले हुए रुप के मूल तक जाए उसमें वही विश्वास वही आकर्षण वही प्रेम फिर से अंकुरित करे तो निःसंदेह उसको वही भाव वही स्वरूप नजर आयेंगे उसके प्रतिमान में ,बस यही कहने कि चेष्टा की है|
वाह !
शृंगार चाहना के आगे दम भरती है. कि, वही आँखों के डोरे सुर्ख़ भी रखती है. चाहना चाहे जो हो, पेट की या देह की !
अपने वायव्य में चाहना चाहे जो रच ले.. किन्तु, बिम्ब का स्वयं बोल उठना बर्दाश्त नहीं होता. चितेरे की संवेदना आहत होती है. ..
बहुत सुन्दर किन्तु अवगुंठितभावों को आपने स्वर दिया है. सादर बधाई.
हार्दिक आभार प्रिय प्राची जी ,हंत व्यथित चित्रकारी अविश्वास व असुरक्षा इतनी वयाप्त हो गई आज एक नारी के मन में कि वो अब एक चित्रकार कि भावना को भी शक़ के दायरे में रख कर देखती है स्पंदन हीन हो चुकी हैं सब उसकी सम्वेद्नाये ,यह देख् कर एक कला एक कलाकार कितने व्यथित है बस यही मर्म है इन्हीं उद्द्गारो को साझा किया है इस क्षणिका में पुनः आभारी हूँ कि मर्म ने आपको छुआ
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