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माटी कहे कुम्हार से

माटी कहे कुम्हार से,

मुझको दे ऐसा आकार,

फिर न चक्का चढू कभी,

मिलूं संग निराकार ...

मुझे रंग दे नाम के रंग में,

पकुं मै तप की अगन में ,

सांचा ऐसा लादे मुझको ,
ढल जाऊं मै सत्कर्म में...

चिकना इतना करदे मुझे,

माया टिके न कोई इसपे,

घट ही में अविनाशी सधे,

हो जोत अंदर परकाशी रे ...

जग तारन कारण देह धरे,

सत्कर्म करे जग पाप हरे, 

चित्त न डगमग मेरा डोले,

ध्यान तेरे चरणों में रहे...

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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on February 25, 2013 at 9:09pm

आदरणीया आरती जी! इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!!!!!!!

Comment by Aarti Sharma on February 25, 2013 at 5:12pm

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक धन्यवाद..

Comment by Meena Pathak on February 25, 2013 at 4:37pm

बहुत अच्छा लगा पढ़ के .. इस सुन्दर रचना के लिए बधाई आप को आरती जी

Comment by Aarti Sharma on February 25, 2013 at 1:54pm

आदरणीय विजय जी,रविकर जी एवं किशन जी ...आप सभी का हार्दिक धन्यवाद...

Comment by रविकर on February 25, 2013 at 12:11pm

बढ़िया प्रयास-
आभार आदरेया-

Comment by विजय मिश्र on February 25, 2013 at 11:56am

जीवन को सुन्दर मार्गदर्शन -- सूफियाना भाव उभरता है और मर्म को स्पर्श भी करता है .

Comment by Aarti Sharma on February 24, 2013 at 5:07pm

आदरणीय त्रिपाठी जी नमस्कार,मार्गदर्शन के लिए शुक्रिया..

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 24, 2013 at 5:01pm
आदरणीया आरती जी!भाव तो उत्तम है, लेकिन रचना में कसावट नहीं है भाव भी बिखरा सा है।यदि इसे किसी विधान आबद्ध किया जाता तो कितना अच्छा होता।
Comment by Aarti Sharma on February 24, 2013 at 4:49pm

आदरणीय बागी सर,आपको रचना पसंद आई ,आपका हार्दिक धन्यवाद ..


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 24, 2013 at 4:08pm

अच्छी रचना, भाव भजन के अच्छे लगें , बधाई इस प्रस्तुति पर । 

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